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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५७

आत्मनिष्ठा का प्रयोजन और सच्चा त्याग

संवत् १८८१ में आषाढ़ शुक्ला षष्ठी (२ जुलाई, १८२४) को सन्ध्या-आरती के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उनके मस्तक पर श्वेत पाग पुष्पों के तुर्रों सहित सुशोभित लग रही थी। उन्होंने श्वेत चादर ओढ़ी थी और सफ़ेद धोती धारण की थी। श्रीजीमहाराज के समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय मशाल का प्रकाश हो रहा था। तथा मुनिमंडल दुक्कड़-सरोद लेकर भगवान के कीर्तन का गान कर रहा था।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिए, एक बात कहते हैं। जब आप लोग भजन कर रहे थे, तब उन्हें सुनते समय हमने जो विचार किया है, उसे बताते हैं। वह यह है कि भगवान में प्रीति करें, तो आत्मसत्तारूप रहकर ही करें। वह सत्तारूप आत्मा कैसी है? तो जिसमें माया एवं मायाजन्य तीन गुणरूप कार्य और देह, इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण आदि का कोई आवरण नहीं रहता। और, कदाचित् कभी-कभी उस आत्मा में कुछ आवरण-सा दिखाई पड़ता है, किन्तु वह तो अज्ञानता के कारण है। परन्तु जिसने ज्ञान-वैराग्य द्वारा उस आवरण को सर्वथा हटा दिया है, उसे तो अपनी आत्मा में किसी भी प्रकार का आवरण नहीं दिखता। वस्तुतः आत्मारूप रहना वह केवल ब्रह्म होकर मस्त होने के लिए ही नहीं है; स्वयं आत्मारूप आचरण करना उसका प्रयोजन यह है कि, ‘यदि मैं आत्मारूप रहता हूँ, तो मुझमें किसी मायिक आवरण का विक्षेप नहीं है, तो फिर आत्मा से परे परमात्मा नारायण वासुदेव में माया का लेशमात्र भी अंश किस प्रकार हो सकता है?’ इस प्रकार भगवान के प्रति किसी भी प्रकार की दोषभावना न रहे, इस प्रयोजन से भक्त को आत्मनिष्ठा सुदृढ़ करके रखनी चाहिए।

“और उस आत्मा के प्रकाश में विचार को स्थापित करके जो कोई भी आत्मा को दूषित करने के लिए आये, तो उसका विनाश कर डालना। जैसे दीपक के प्रकाश में छिपकली अपने सामने आनेवाले प्रत्येक जन्तु का नाश कर डालती है, वैसे ही आत्मा के प्रकाश में रहनेवाला ज्ञानरूपी विचार आत्मेतर अन्य पदार्थों का नाश कर डालता है।

“और, परमेश्वर से जिसको प्रगाढ़ स्नेह हो, उसे तो परमेश्वर के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ से लगाव नहीं होता। तथा परमेश्वर के सिवा अन्य जो भी पदार्थ अधिक रुचिकर लगे, उसका अतिशय त्याग करना, वही सच्चा त्याग है। फिर वह पदार्थ छोटा हो या बड़ा भी क्यों न हो? परन्तु उस पदार्थ का त्याग करना ही त्याग कहलाता है। तथा भगवान के भजन में जो पदार्थ बाधक बनता हो, उसको न छोड़कर यदि ऊपर से किसी ने चाहे कितना ही अधिक त्याग कर दिया, तो उसका वह त्याग वृथा ही है। ऐसा कभी मत समझना कि, ‘अच्छा पदार्थ ही भगवान के भजन में बाधक बन सकता है, और तुच्छ पदार्थ बाधा नहीं डाल सकता।’ सो तो जीव का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि किसी को मीठा अच्छा लगता है, किसी को नमकीन पसंद है, किसी को खट्टा और किसी को कडुआ स्वाद पसंद होता है; वैसे जीव की तो ऐसी तुच्छ बुद्धि है, सो वह तुच्छ पदार्थ को भी भगवान की अपेक्षा अधिक प्रिय समझता है। और जब भगवान की महत्ता को देखते हैं, तब तो यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो भगवान की कोटि के एक भाग का भी पासंग हो सके। यदि ऐसे भगवान को यथार्थरूप से जानकर उनसे स्नेह किया गया, तो पिंड-ब्रह्मांडादि मायिक पदार्थों में कहीं भी प्रीति रहेगी ही नहीं, और समस्त मायिक पदार्थ तुच्छ होकर रह जाएँगे।

“और, जब चित्रकेतु राजा को उन भगवान की ऐसी महिमा का यथार्थरूप से ज्ञान हो गया, तब उसने एक करोड़ स्त्रियों तथा समस्त पृथ्वी के चक्रवर्ती राज्य का भी परित्याग कर दिया। उसे यह भी अन्तर्ज्ञान हुआ कि, ‘उन भगवान के आनन्द के आगे एक सौ लाख स्त्रियों से मिलनेवाले सुख की क्या गणना हो सकती है? तथा चक्रवर्ती राज्य के सुख की भी क्या गणना हो सकती है? भगवद् भक्तिजन्य आनन्द के आगे इन्द्रलोक तथा ब्रह्मलोक से मिलनेवाले सुख की भी क्या तुलना हो सकती है?’

“ऐसे भगवान को छोड़कर जो अन्य पदार्थों से प्रीति करता है, वह तो अतिशय तुच्छ बुद्धिवाला है। जैसे कुत्ता सूखी हड्डी को एकान्त में ले जाकर उसे चबाता है और उसमें सुख मानता है, वैसे ही मूर्ख जीव दुःख में सुख मानकर तुच्छ पदार्थों में आसक्त रहता है।

“और, यदि कोई भगवान का भक्त कहा जाता हो, परन्तु वह यदि भगवान की अपेक्षा अन्य पदार्थों से अधिक लगाव रखता हो, तो वह केवल बिल्ली भगत ही है। तथा जो भगवान का यथार्थ भक्त होता है, उसे तो भगवान के सिवा अन्य कोई भी पदार्थ प्रिय ही नहीं लगता। भगवान का जो भक्त ज्ञान, वैराग्य, भक्ति एवं धर्म से युक्त है, वह यह समझता है कि, ‘जो शूरवीर है, वह युद्ध के समय शत्रु के सम्मुख जाकर चुनौती देता है, लेकिन शत्रु से भयभीत नहीं होता। और, वही तो सच्चा शूरवीर कहा जाता है। यदि शूरवीर हो, परन्तु युद्ध के समय काम नहीं आया, अथवा पास में अत्यधिक धन हो, परन्तु वह समयपर खर्च करने पर उपयोग में नहीं आया, तो दोनों ही व्यर्थ एवं निरर्थक हैं। उसी प्रकार मुझे भगवान मिले हैं और जो कोई जीव मेरा संग करता है, उसके आगे मैं यदि कल्याण की बातें न करूँ, तो मेरे ज्ञान का क्या प्रयोजन?’ ऐसा विचार करके, उपदेश करते समय यदि कोई मुश्किलें खड़ी हो गईं तो भी परमेश्वर की बात करने में कभी कायरता नहीं रखनी चाहिए।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज ने तुलसीदास के तीन पदों का गान कराया। एक तो ‘जा की लगन राम सों नाहीं,’ दूसरा, ‘एही कह्यो सुनूँ वेद चहूँ,’ तथा तीसरा ‘जाके प्रिय न राम वैदेही।’

इन तीनों पदों २४५ का गान कराने के पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो बातें इन पदों में बताई गई हैं, उन्हीं के अनुसार हमें रहना है। उस प्रकार साधना करते हुए कदाचित् कोई अपूर्णता रह गयी और यदि देहत्याग का समय आ गया, तो भी कौन सा डर है? हमें तो मरकर नरक में या चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना पड़ेगा अथवा भूत-प्रेत की योनियों में भी नहीं रहना पड़ेगा। यदि हमें खराब से खराब शरीर भी मिला, तो वह भी इन्द्र या ब्रह्मा के सदृश तो होगा ही, किन्तु उससे निम्न देह तो हमें नहीं मिलेगी। इसलिए, निर्भय होकर भगवद्भजन करते रहना चाहिए।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज मुकुन्द ब्रह्मचारी के साथ भोजन के लिए पधारे, जो उन्हें बुलाने के लिए आए थे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५७ ॥ १९० ॥

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२४५. देखिए परिशिष्ट: ६

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