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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५८

सम्प्रदाय की पुष्टि

संवत् १८८१ में श्रावण शुक्ला चतुर्थी (२९ जुलाई, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। श्रीजीमहाराज ने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “जो-जो आचार्य हुए हैं, उनके सम्प्रदायों की पुष्टि दीर्घकाल तक किन उपायों द्वारा होती रही है?”

उत्तर में मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “एक तो सम्प्रदाय सम्बंधी ग्रन्थ, दूसरा शास्त्रोक्त वर्णाश्रम धर्म तथा तीसरी अपने इष्टदेव के प्रति अतिशय दृढ़ता, इन तीन उपायों के द्वारा अपने सम्प्रदाय की पुष्टि होती रहती है।”

यही प्रश्न श्रीजीमहाराज ने ब्रह्मानन्द स्वामी तथा नित्यानन्द स्वामी से भी पूछा, तो उन्होंने भी यही उत्तर दिया।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “लीजिए, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं। सम्प्रदाय की पुष्टि इस प्रकार से होती है कि जिस सम्प्रदाय के जो इष्टदेव हों, उनका जिस प्रयोजन से पृथ्वी पर जन्म हुआ हो तथा जन्म-धारण करके उन्होंने जो-जो चरित्र किए हों और जो-जो आचरण किए हों, उन चरित्रों में धर्म भी सहजभाव से आ जाता है और उन इष्टदेव की महिमा भी आ जाती है। इसलिए, अपने इष्टदेव के जन्म से लेकर देहोत्सर्ग पर्यन्त के चरित्रों के शास्त्र द्वारा सम्प्रदाय की पुष्टि होती है। वह शास्त्र संस्कृत में हो या किसी अन्य प्राकृत भाषा में, परन्तु वही ग्रन्थ सम्प्रदाय की पुष्टि करता है। उसके सिवा कोई अन्य ग्रन्थ अपने सम्प्रदाय की पुष्टि नहीं करता। जैसे, श्रीरामचन्द्रजी के उपासकों के लिए वाल्मीकि रामायण द्वारा ही अपने सम्प्रदाय की पुष्टि होती है तथा श्रीकृष्ण भगवान के उपासकों के लिए भागवत के दशम स्कन्ध द्वारा ही स्व-सम्प्रदाय की पुष्टि होती है, परन्तु श्रीरामचन्द्रजी के उपासकों तथा श्रीकृष्ण के उपासकों के लिए अपने-अपने सम्प्रदायों की पुष्टि वेदों द्वारा संभव नहीं होती। अतः अपने-अपने सम्प्रदायों की रीति सम्बंधी जो शास्त्र होता है, भविष्य में वही अपने-अपने सम्प्रदायों की पुष्टि करता रहता है।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी को सम्बोधित करके कहा कि, “आप भी स्व-सम्प्रदाय तथा अपने इष्टदेव सम्बंधी वाणी तथा शास्त्र की ही जीवन पर्यन्त रचना करते रहना। जब तक आपका शरीर बना रहे, तब तक आपके लिए यही आज्ञा है।”

श्रीजीमहाराज के इस वचन को मुक्तानन्द स्वामी ने अत्यन्त आदरपूर्वक शिरोधार्य किया तथा दोनों हाथ जोड़कर श्रीजीमहाराज को प्रणाम किया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५८ ॥ १९१ ॥

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