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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५९

परम कल्याण

संवत् १८८१ में श्रावण शुक्ला द्वादशी (६ अगस्त, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के बरामदे में पलंग पर पूर्वाभिमुख होकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “चारों वेद, पुराण, तथा इतिहास आदि सभी ग्रंथों में यही बात कही गई है कि, ‘भगवान तथा भगवान के संत ही कल्याणकारी हैं।’ और, भगवान के जो संत हैं, वह तो भव-ब्रह्मादि देवों से भी अधिक हैं। अतः भगवान तथा भगवान के सन्त की जब प्राप्ति हुई, तब उस जीव के लिए उससे बढ़कर दूसरा कोई कल्याण ही नहीं है, यही परम कल्याण है। और, भगवान के सन्त की सेवा तो अत्यधिक पुण्यवान आत्मा को ही प्राप्त होती है, किन्तु अल्प पुण्यवाले को यह सेवा नहीं मिलती। इसलिए, भगवान के सन्त के प्रति ऐसा स्नेह-भाव रखना चाहिए, जैसा स्नेह अपनी स्त्री से है, या पुत्र से है, अथवा माता-पिता और भाई से है। ऐसे स्नेह से जीव कृतार्थ हो जाता है।

“और, संसार में अपने स्त्री-पुत्रादि चाहे कुपात्र और कुलक्षण वाले ही क्यों न हों, फिर भी उनके दुर्गुणों पर किसी प्रकार ध्यान नहीं देते; जबकि भगवान के भक्त समस्त शुभगुणों से युक्त होते हैं, फिर भी यदि उन्होंने कुछ तनिक-सा भी कटु वचन बोल दिया, तो उसकी चुभन जिसे जीवन की अन्तिम साँस तक खटकती रहे। ऐसी वृत्ति जिसकी है, उसे अपने सम्बंधीजनों के जैसा स्नेह भगवान के उन भक्त पर भी है ऐसा कहा ही नहीं जा सकता। इसलिए, उसका कल्याण भी नहीं होता।

“और, सन्त की महिमा तो हमने आगे बताई, ऐसी अपार है। ऐसे सन्त तथा भगवान की प्राप्ति हुई है फिर भी कुछेक ऐसे भी हैं जिनका मन विचलित सा रहता है कि, ‘मेरा कल्याण होगा या नहीं होगा?’ इस दुविधा का कारण क्या है? तो उस जीव को पूर्वजन्म में भगवान या भगवान के सन्त की प्राप्ति हुई ही नहीं थी तथा उनकी सेवा भी उसने नहीं की थी। उसे तो इस जन्म में ही सत्संग का प्रारम्भ हुआ है, जो आनेवाले जन्म में फलीभूत होगा। और, जिसे पूर्वजन्म में भगवान या भगवान के भक्त की प्राप्ति हुई होगी और उसने उनकी सेवा की होगी, उसे इस जन्म में भगवान या भगवान के भक्त से स्नेह मिटता ही नहीं, तथा उसे भगवान के निश्चय में भी अस्थिरता नहीं रहेगी। कदाचित् उसमें काम, क्रोध तथा लोभ सम्बंधी संकल्प का विक्षेप होता रहे, किन्तु भगवान सम्बंधी निश्चय उसके हृदय से कभी नहीं मिटता। सो किसी के बुरे वचनों से निश्चय नहीं मिटे, तो उसमें कहना ही क्या है? अरे! उसे तो यदि अपना मन भी निश्चय में डगमगाहट कराए, फिर भी वह निश्चय से विचलित नहीं होगा। उसकी दृढ़ता कैसी है? तो जैसी नाथभक्त२४६ की है या जैसी विष्णुदास२४७ की थी, या जैसी हिमराज शाह२४८ की थी या जैसी काशीदास२४९ की है या जैसी भालचन्द्र सेठ२५० की थी या जैसी दामोदर२५१ की है, वैसी दृढ़ता यदि उसमें रहे तो समझना चाहिए कि यह भगवान का पूर्वजन्म का भक्त है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५९ ॥ १९२ ॥

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२४६. कणभा गाँव के वैश्य भक्त।

२४७. डभाण के वैश्य भक्त।

२४८. सुन्दरीयाणा के वणिक भक्त।

२४९. बोचासण के वैश्य भक्त।

२५०. सूरत के वणिक भक्त।

२५१. अहमदाबाद के वैश्य भक्त।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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