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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६१

पक्का सत्संगी

संवत् १८८१ में श्रावण कृष्णा सप्तमी (१७ अगस्त, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर सुनहरा पल्लेदार श्वेत शेला बाँधा था, दूसरा सफ़ेद शेला ओढ़ा था, श्वेत धोती धारण की थी और मोगरे के फूलों के हार पहने थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसमें तीन गुण हों वह पक्का सत्संगी कहलाता है। वे तीन गुण कौन-से हैं? तो पहली बात यह है कि अपने इष्टदेव ने जो नियम धारण करवाये हों, उन्हें अत्यंत दृढ़तापूर्वक अपना सिर देकर के भी पालन करता रहे, परन्तु उस धर्मनिष्ठा का कभी भी परित्याग न करे। दूसरी बात यह है कि उसे भगवान के स्वरूप का निश्चय अत्यंत दृढ़तापूर्वक हो; उसमें यदि कोई संशय उत्पन्न करना चाहे, तो भी उसे सन्देह उत्पन्न न हो, तथा अपना मन भी संशय उत्पन्न करना चाहे, तो भी कोई संशय न हो, ऐसा अडिग निश्चय हो। एवं तीसरा अपने इष्टदेव का भजन करनेवाले सत्संगी वैष्णवजनों का जो पक्ष ग्रहण करें; जैसे माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री का पक्ष रखते हैं, तथा जैसे पुत्र अपने पिता का पक्ष रखता है, और स्त्री जैसे अपने पति का पक्ष रखती है, वैसे ही भगवान के भक्त का पक्ष रखना चाहिए। जिसमें ये तीन गुण परिपूर्ण रूप से हों, वही पक्का सत्संगी कहलाता है।

“और, यदि हरिभक्तों की सभा में आकर कोई अग्रस्थान में आसीन में होता हो, तब दूसरों को यह मालूम पड़ता है कि, ‘यह बड़ा सत्संगी है।’ परन्तु, बहुत बड़े की कसौटी यह है कि जो गृहस्थ हो, वह अपना सर्वस्व केवल भगवान तथा भगवान के भक्त के लिए ही समर्पित करके रखे, और यदि सत्संग के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने की आवश्यकता पड़ जाए, तो उसके लिए वह अपने प्राण भी अर्पण करना पड़े तो तैयार रहे। और, अपने इष्टदेव जिस क्षण यह आज्ञा दें कि, ‘तू परमहंस बन जा,’ तो वह तुरन्त परमहंस बन जाए! जिसके ऐसे लक्षण हों, वह हरिभक्तों की सभा में अग्रस्थान ग्रहण करे या पीछे बैठे, परन्तु उसी को समस्त हरिभक्तों में अग्रगण्य समझना चाहिए। और, जो त्यागी हो, वह देश-परदेश में जाए और वहाँ उसे यदि कनक-कामिनी का संयोग हो जाए, तब भी किसी प्रकार से जो विचलित नहीं होता तथा अपने त्यागी के जो-जो नियम हैं, उन सभी को दृढ़तापूर्वक बनाए रखे, वही समस्त त्यागीजनों में बड़ा कहलाता है।

“और, इस संसार में जो कोई रजोगुणी बड़ा मनुष्य कहलाता हो, वह जब सत्संग-सभा में आये, उस समय उसे आदरपूर्वक सभा के अग्रस्थान में बैठाना चाहिए; वह तो एक सद्‌व्यवहार है, जो ज्ञानी और त्यागी सभी को रखना चाहिए; यदि ऐसा व्यवहार न किया जाए तो अवश्य ही अनिष्ट होकर रहता है। जैसे कि एकबार राजा परीक्षित शमिक ऋषि के आश्रम में जा पहुँचे। उस समय ऋषि समाधि में मग्न थे, अतः राजा का स्वागत-सत्कार न हो सका। तब राजा ने क्रोधित होकर ऋषि के गले में एक मरा हुआ साँप डाल दिया। इसे देखकर ऋषि के पुत्र ने राजा को शाप दे दिया। जिसके फलस्वरूप सात दिन में ही राजा की मृत्यु हो गई। और, जब ब्रह्मा की सभा में दक्ष प्रजापति पधारे, तब शिवजी उनके सम्मान में न तो खड़े हुए, न तो उन्होंने वचन द्वारा ही उनका कोई सम्मान किया। अतः दक्ष ने क्रोधित होकर शिवजी को यज्ञ में से मिलनेवाले उनके भाग से वंचित कर दिया। बाद में नन्दीश्वर तथा भृगु ऋषि में भी परस्पर कलह हुआ और परस्पर दोनों ने शाप दिए, फलस्वरूप सती ने दक्ष के यज्ञ में स्वयं को भस्म कर दिया। इस कारण शिव के मुख्य गण वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक काटकर यज्ञाग्नि में झोंक दिया। फिर दक्ष को बकरे का मुँह लगाकार रहना पड़ा।

“अतः गृहस्थों तथा त्यागीजनों को सदैव इसी रीति के अनुसार व्यवहार करना चाहिए कि संसार के व्यावहारिक जीवन में जो मनुष्य बड़ा आदमी कहलाता हो, उसका सभा में किसी भी तरह से अपमान नहीं करना चाहिए; और यदि कोई मनुष्य ऐसे पुरुष का अपमान करेगा, तो उसे अवश्य ही दुःख प्राप्त होगा, तथा भगवान के भजन एवं नाम-स्मरण में भी उसे विक्षेप पड़ेगा। इसीलिए यह वार्ता समस्त सत्संगी गृहस्थों तथा सभी त्यागियों को मन में दृढ़ करके रखनी चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६१ ॥ १९४ ॥

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