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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६२

आत्मनिष्ठा, पतिव्रता-भक्ति एवं दासत्व

संवत् १८८१ में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया (२२ नवम्बर, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और श्वेत धोती धारण की थी। श्रीजीमहाराज के समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने अपने भतीजों अयोध्याप्रसादजी तथा रघुवीरजी को बुलवाया और उनसे कहने लगे कि, “आप हमसे प्रश्न पूछिये।”

सबसे पहले अयोध्याप्रसादजी ने प्रश्न पूछा कि, “इस संसार में ऐसा कोई पुरुष हो, जो आठों प्रहर संसार की समस्याओं से घिरा रहता हो तथा उससे यदा-कदा उचित-अनुचित कर्म भी हो जाते हों, फिर भी वह एक घड़ी या दो घड़ी तक भगवान का भजन करे, तो क्या उस भजन के फलस्वरूप उसके सारे दिन के किए हुए पाप नष्ट होते हैं या नहीं होते?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “सारे दिन प्रवृत्ति मार्ग में रहकर चाहे कैसी भी क्रिया क्यों न की हो, फिर भी यदि वह पुरुष भगवान का भजन करने बैठ जाए, तब यदि भजन करते हुए उस भक्त की इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा जीव ये सब एकाग्र होकर भजन में जुड़ जाए, और यदि इस प्रकार एक घड़ी या आधी घड़ी भी इन्द्रियाँ भगवान के भजन में जुड़ी रहें, तो उसके समग्र पाप जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं। परन्तु यदि इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा जीव एकाग्रतापूर्वक भगवान के भजन में नहीं जुड़े, तो एक घड़ी या आधी घड़ी के ऐसे भजन से उसके पाप नष्ट नहीं हो सकते। हाँ, उस पुरुष का कल्याण भगवान के प्रताप से हो सकता है। इस प्रश्न का यही उत्तर है।”

इसके पश्चात् रघुवीरजी ने पूछा कि, “हे महाराज! जीव के मोक्ष के लिए क्या करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे आत्मकल्याण की इच्छा हो, उसको अपनी देह, धन, धाम तथा कुटुम्ब परिवार सब कुछ भगवान की सेवा में जोड़ देना चाहिए, तथा भगवान की सेवा में जो भी पदार्थ काम में न आए उनका परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार जो पुरुष भगवत्परायण आचरण करता है, वह गृहस्थाश्रमी होने पर भी मृत्यु के बाद भगवान के धाम में नारद-सनकादि की पंक्ति में स्थान प्राप्त करता है और वह परम मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। यही इस प्रश्न का उत्तर है।”

इस प्रकार वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज पुनः स्वेच्छा से कहने लगे कि, “जिस दिन से हम विचार कर रहे हैं, उसी समय से हमारी दृष्टि में यही बात आती रही है कि जीव के कल्याण के लिए मुमुक्षु को तीन अंग (स्वाभाविक गुण) अत्यन्त सुखदायी हैं।

“पहला अंग यह है कि अतिशय आत्मनिष्ठा हो। जैसे शुकजी आचरण करते थे, उस प्रकार आत्मारूप होकर परमेश्वर का भजन करना। और, दूसरा पतिव्रता का अंग है। जैसे कि गोपियों की तरह पतिभाव से भगवान का भजन करना। तीसरा दासत्व का अंग है। जैसे कि हनुमानजी और उद्धवजी की भाँति दासभाव से भगवान का भजन करना। बिना इन तीन अंगों के अन्य किसी भी रीति से मुमुक्षु का कल्याण नहीं हो पाता। और, हम तो इन तीनों अंगों को सुदृढ़ करके रखते हैं। जो भी मुमुक्षु इनमें से एक भी अंग सुदृढ़ बना लेता है, तो वह कृतार्थ हो जाता है। अब इन तीनों अंगों को सिद्ध किए हुए भक्तों के लक्षण पृथक्-पृथक् करके बताते हैं।

“इनमें से आत्मनिष्ठावाले के लक्षण ये हैं कि एक ओर तो आत्मा है और दूसरी ओर देह, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण, तीन गुण तथा पंचविषय आदि माया की टोली है। इन दोनों के बीच जो विचार रहता है, वह विचार ज्ञानस्वरूपी है। जैसे वायुरहित स्थान में दीपशिखा बिल्कुल स्थिर रहती है, वैसे ही वह विचार भी अतिशय स्थिर होकर रहता है। वह विचार देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को आत्मा के साथ एकात्मभाव स्थापित नहीं करने देता और वह विचार भी आत्मा के साथ एक नहीं होता। जब मुमुक्षु उस विचार को प्राप्त करता है, तब उसकी वृत्ति जो काशी जितनी दूरी तक रहती थी, वह पास में वरताल तक आ जाती है। और फिर जब वह विचार दृढ़ हो जाता है, तब यह वृत्ति वरताल से इस गढ़डा तक आ जाती है। फिर गढ़डाव्यापी लम्बी वृत्ति हो, वह सिमटकर अपने देहव्यापी स्थान में बनी रहती है। इसके बाद यही वृत्ति देह में से भी और संकुचित होकर इन्द्रियों के गोलक में रहती है। इसके पश्चात् इन्द्रियों के गोलक से इन्द्रियों की वृत्तियाँ अन्तःकरण के सम्मुख हो जाती हैं। इसके बाद इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की वृत्तियाँ आत्मा में विलीन हो जाती हैं। जब ऐसा होता है, तब जीवात्मा के वासनामय शरीर का विनाश हो गया कहा जाता है। और, वही विचार जब आत्मा के साथ मिल जाता है, तब उस जीवात्मा में प्रकाश होता है तथा उसे अपनी आत्मा का ब्रह्मरूप में दर्शन होता है तथा उस ब्रह्म में परब्रह्म नारायण का भी दर्शन होता है। फिर उस दर्शन करनेवाले को अनुभव होता है कि, ‘मैं आत्मा हूँ तथा मुझमें परमात्मा अखंडरूप से रह रहे हैं।’ ऐसी अखंड स्थिति ही आत्मनिष्ठा की अत्युत्तम दशा है।

“और, पतिव्रता भक्ति का अंग व्रज की गोपियों जैसा होना चाहिए। जिस प्रकार गोपियों ने श्रीकृष्ण भगवान के चरणारविंदों का स्पर्श जिस दिन से किया, उस दिन से संसार सम्बंधी सभी सुख उनके लिए विष तुल्य हो गए। जैसे पतिव्रता स्त्री के हृदय में अपने पति के प्रति भक्ति होती है, वैसी ही अनन्य भक्ति जिसे भगवान के प्रति हो, वह तो चाहे इन्द्र के समान रूपवान पुरुष को देखने पर तथा देवता अथवा राजा को देखने पर ऐसा ही माने कि जैसे मैंने किसी सड़े हुए कुत्ते को देख लिया! अथवा विष्टा को देख लिया! यूं घृणित होकर वह अपनी दृष्टि को वापस खींच लेती है। ठीक उसी प्रकार भगवान रहित अन्य सभी मायिक पदार्थों से अनासक्ति पूर्वक दृष्टि समेट लेना ही उत्तम पतिव्रता के अंगवाले भक्त की रीति है। अतः जिस भक्त की वृत्ति एकमात्र भगवान में ही इस प्रकार पतिभाव से जुड़ गई है, उसका मन भगवान को छोड़कर अन्य किसी को देखने से राजी होता ही नहीं है।

“तीसरा अंग दासत्व भक्ति का है। ऐसी दासत्व भक्तिवालों को भी अपने इष्टदेव के दर्शन ही प्रिय लगते हैं, और उन्हीं की वार्ता को सुनना प्रिय लगता है, और अपने इष्टदेव का ही स्वभाव प्रिय लगता है और उन्हीं के पास रहना उसे रुचिकर लगता है। ऐसी प्रीति होने पर भी वह अपने इष्टदेव की सेवा तथा प्रसन्नता के लिए रात-दिन यही इच्छा करता रहता है कि, ‘मेरे इष्टदेव यदि मेरे लिए कोई आज्ञा करें, तो अत्यन्त ही हर्षपूर्वक उसका मैं पालन करूँ।’ फिर इष्टदेव की आज्ञा से वह भक्त चाहे दूर रहना हो, वह अति प्रसन्नतापूर्वक दूर जाकर रहता है, किन्तु उसका मन खिन्न नहीं हो जाता। और, आज्ञापालन में ही परम आनन्द अनुभव करता है। ऐसी स्थिति ही दासत्व भक्ति की उत्तम स्थिति है। ऐसी दासत्व भक्तिवाले तो आज गोपालानन्द स्वामी और मुक्तानन्द स्वामी हैं।

“उपरोक्त तीनों अंगवाले भगवान के भक्तों में उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ स्तर देखे जाते हैं। जो भक्त इन अंगों से बाह्य है, वे केवल पामर कहलाते हैं। इसलिए, यही उचित है कि इन तीनों अंगों में से किसी भी एक अंग के परिपूर्ण होने पर ही देह का त्याग करना उचित है। परन्तु जिसे इन तीनों में से एक भी सिद्ध नहीं हुआ और देहत्याग का समय आ गया, वह उचित नहीं है। भले ही उसे पाँच दिन और अधिक जीना हो, जीकर भी अपने अज्ञान को मिटाकर इन तीनों अंगों में से किसी भी एक की दृढ़ता करके प्राणोत्सर्ग करे, यही उचित है।

“और, इस जीव का तो ऐसा स्वभाव ही विपरीत दिखता है कि जब वह गृहस्थाश्रम में रहता है, तब उसे संसार त्याग करना अच्छा लगता है और संसार को छोड़कर त्यागी हो जाता है, तब उसकी सांसारिक सुख की इच्छाएँ बलवती होने लगती हैं। इसलिए, भगवान के दृढ़ आश्रित को ऐसे उलटे स्वभाव का परित्याग करके अपनी समूची मनमानी छोड़कर भगवान का भजन करते रहना चाहिए। भगवान के सिवा अन्य समस्त वासनाओं को नष्ट करके ही प्राणत्याग करना उचित है। और, जिसको भगवान में अतिशय प्रीति न हो, उसे आत्मविचार द्वारा आत्मनिष्ठा को ही सुदृढ़ करते रहना चाहिए। क्योंकि जो भगवान का भक्त हो, उसे या तो आत्मनिष्ठा सुदृढ़ होनी चाहिए, या भगवान में अतिशय दृढ़ प्रीति बनाए रखनी चाहिए। इन दोनों अंगों में से जिसका एक भी अंग अतिशय सुदृढ़ नहीं है, उसे सत्संग के नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहना चाहिए तभी वह ‘सत्संगी’ रह सकेगा; अन्यथा सत्संग से विमुख होकर वह पथभ्रष्ट हो जाएगा।

“और, एक बात यह भी है कि भगवान के भक्त को जिस-जिस प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ता है, उन दुःखों को देनेवाला काल, कर्म और माया में से कोई भी नहीं है, किन्तु स्वयं भगवान ही अपने भक्त का धैर्य देखने के लिए इन दुःखों को प्रेरित करते हैं। जैसे कोई पुरुष पर्दे के पीछे रहकर आगे की ओर देखता है, वैसे ही भगवान भी भक्त के हृदय में रहकर उसके धैर्य को देखते रहते हैं। लेकिन काल, कर्म और माया की क्या मजाल है कि वे भगवान के भक्त को पीड़ित कर सकें? वह तो भगवान की ही ऐसी इच्छा है, ऐसा समझकर भगवान के भक्त को आनंदमग्न रहना।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “हे महाराज! आपने जो तीनों अंगों की बात कही, वह तो अति सूक्ष्म है और दुर्बोध भी है, जो किसी को ही समझ में आ सकती है और कुछ लोग ही इसके अनुसार आचरण कर सकते हैं। लेकिन सभी इसके अनुसार वर्तन नहीं कर सकते। और, इस सत्संग में तो लाखों मनुष्य हैं, उन सभी के लिए यह बात समझना कठिन है। अतः उन सभी का श्रेय किस प्रकार हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि कोई इस बात को समझ नहीं पाया, तो उसे यह करना चाहिए कि ये तीनों गुण जिसने सिद्ध किए हों, ऐसे हरिभक्त का दासानुदास होकर वह उसकी आज्ञा में रहे। ऐसा करने पर वह कुछ भी नहीं समझने पर भी मृत्यु से पूर्व जीते जी भगवान का पार्षद बन चुका है! और कृतार्थ भी हो चुका होता है। और, इस संसार में भगवान तथा भगवान के भक्त की महिमा अति अपार है, सो चाहे कैसा ही पामर और पतित जीव क्यों न हो, फिर भी भगवान या भगवान के भक्त का आश्रित हुआ, तो वह जीवात्मा कृतार्थ हो जाती है; ऐसी भगवान तथा भगवान के भक्त की महिमा है। अतः जिसको भगवान के भक्त की सेवा प्राप्त हुई है, उसे निर्भय होकर रहना चाहिए।

“हमने जो इन तीनों गुणों की वार्ता कही है, वह बहुधा ये मुक्तानन्द स्वामी के लिए कही है। मुक्तानन्द स्वामी पर हमें बहुत स्नेह है। उनके शरीर में (क्षय) रोग है, अतः हम समझते हैं कि उनमें किसी प्रकार का कोई दोष न रह जाए! इसी कारण हमने यह वार्ता कही है।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने भी कहा कि, “हे महाराज! मैंने भी यही जाना है कि आपने मेरे लिए ही यह वार्ता कही है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६२ ॥ १९५ ॥

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