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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६३

आत्मा को बलवान करने का उपाय

संवत् १८८१ में मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया (८ दिसम्बर, १८२४) को श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष भजनानन्द स्वामी श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे। तथा परमहंसों एवं विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! द्रष्टा (आत्मा) तथा दृश्य (देह और इन्द्रियों) के मध्य में जो विचार रहा है, वह द्रष्टा तथा दृश्य को अलग-अलग रखता है। इस प्रक्रिया में हमें जीव का ज्ञातृत्व कौनसा समझना चाहिए, तथा इन्द्रियों एवं अन्तःकरण का ज्ञातृत्व कौनसा समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जिसकी आत्मा अतिशय बलवान हुई हो, उसके लिए अन्तःकरण की वृत्तियाँ जीव की ही वृत्तियाँ हैं। चार क्रियाओं द्वारा अन्तःकरण के चार विभाग (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) प्रतीत होते हैं। उस अन्तःकरण तथा इन्द्रियों में जो ज्ञातृत्व है, वह जीव का ही ज्ञातृत्व है; जो इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण को जहाँ घटित हों, वहाँ प्रवृत्त होने देता है तथा जहाँ उचित न हो वहाँ उन्हें प्रवृत्त नहीं होने देता। यहाँ वास्तविकता यह है कि जिसकी आत्मा ने अतिशय बल प्राप्त कर लिया हो, उसे तो बुरा स्वप्न तक नहीं आता। और, जिसकी आत्मा निर्बल हो, उसे तो सांख्य मतानुसार द्रष्टा जो अपनी आत्मा है, उस आत्मभाव से ही रहना चाहिए, किन्तु इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के भावों में तद्रूप नहीं होना चाहिए। इस प्रकार आत्मसत्तारूप रहने से उसकी आत्मा बलवान होती है।

“इससे भी अधिक आत्मा में बल प्राप्त करने का एक बहुत बड़ा उपाय यह है कि भगवान तथा भगवान के सन्त से जिन्हें प्रीति बंध गई हो, और उनकी सेवा में जिनको प्रगाढ़ श्रद्धा रहती हो एवं जो भगवान की नवधा भक्ति से युक्त हो, उसकी आत्मा तत्काल अतिशय बल प्राप्त कर लेती है। अतः जीवात्मा को बल प्राप्त करने के लिए भगवान तथा भगवान के भक्त की सेवा के बराबर अन्य कोई उपाय नहीं है।

“अब हम अपने अंतर की बात कहते हैं कि जब हम आषाढ़ी संवत् १८६९ में बीमार पड़ गए थे, तब हमें कैलास तथा वैकुंठ दृष्टिगोचर हुए थे। उस समय हमें दिखाई दिया कि हमने नन्दीश्वर और गरुड़ की सवारी भी की। परन्तु हमें उस सामर्थ्य में कुछ भी अच्छा नहीं लगा। इसके पश्चात् हम केवल आत्मसत्तारूप रहने लगे। तब सभी झंझटों का अन्त हो गया। फिर भी, हमें ऐसा विचार हुआ कि आत्मसत्तारूप रहने से भी बढ़कर तो यही श्रेष्ठ है कि देह धारण करके भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ रहना। तब हमें ऐसा भय हुआ कि कहीं आत्मसत्तारूप रहने से देह धारण करना असंभव न हो जाए। अतः देह-धारण करके भगवान तथा भगवान के भक्त की संगति में रहें और उनकी जो कुछ भी सेवा हो जाए वही अत्यन्त श्रेष्ठ साधन है।

“यह बात भी है कि जब मनुष्य का अन्त समय आ जाता है तब अनेक प्रकार की आधि-व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। बाद में जब भगवान तथा भगवान के सन्त के दर्शन होते हैं, तब समस्त दुःखों का नाश हो जाता है। इस प्रकार भगवान तथा भगवान के भक्त की बड़ी महिमा है। और, भगवान के भक्त तो वास्तव में ब्रह्म की ही मूर्तियाँ हैं। उनके सम्बंध में मनुष्यभाव रखना ही नहीं चाहिए। जिस प्रकार हम अपने दैहिक कुटुम्बीजनों के हित के लिए उन्हें डाँटते हैं और वे हमें डाँटते हैं, फिर भी मन में किसी भी तरह का मनमुटाव नहीं रहता, वैसा ही सम्बंध भगवान के भक्तों के साथ होना चाहिए।

“जिसे भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ मनमुटाव हो जाता है, उसके प्रति हमें देखना भी पसंद नहीं है। उस पर से हमारा रोष भी कभी शान्त नहीं होता। और, इस संसार में पंचमहापाप करनेवालों का कभी छुटकारा हो सकता है, किन्तु भगवान के भक्त का द्रोह करनेवालों का कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता। इसलिए, भगवान के भक्त की सेवा करनी इससे बढ़कर कोई अन्य पुण्य नहीं है, और भगवान के भक्त का द्रोह करना इससे बढ़कर कोई अन्य पाप नहीं है। अतः जिसे अपनी जीवात्मा को बलवान बनाना हो, वह भगवान तथा भगवान के भक्त की मन, कर्म और वचन द्वारा शुद्धभाव से सेवा करता रहे, यही उपाय है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६३ ॥ १९६ ॥

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