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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६४

भगवान के स्वरूप की महिमा

संवत् १८८१ में पौष शुक्ला सप्तमी (२७ दिसम्बर, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के बरामदे में गद्दी-तकिया रखवाकर अपने मुखारविन्द को उत्तराभिमुख करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “हे महाराज! भगवान के जो अवतार हैं, वे सब एक समान हैं या फिर उनमें न्यूनाधिक भाव हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमने व्यासजी द्वारा रचित समस्त ग्रन्थों को सुना, फिर उन पर पूर्वापर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि भगवान के जो मत्स्य, कच्छ, वराह, नृसिंहादि अवतार हैं, उन समस्त अवतारों के अवतारी श्रीकृष्ण भगवान हैं। परन्तु, अन्य अवतारों के समान श्रीकृष्ण भगवान अवतार नहीं, बल्कि अवतारी ही हैं। ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान हैं, वे हमारे इष्टदेव हैं। उन श्रीकृष्ण भगवान के चरित्रों का सम्पूर्ण वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध में किया गया है। इसलिए, हमने अपने उद्धव-सम्प्रदाय में दशम स्कन्ध को अत्यन्त ही प्रमाणित माना है। अन्य सभी अवतार भी भगवान श्रीकृष्ण के ही हैं। इसीलिए हमें इन अवतारों तथा अवतारों का प्रतिपादन करनेवाले सभी ग्रन्थों को मानना चाहिए, किन्तु विशेषतः श्रीकृष्ण भगवान तथा उनको प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थों को ही मानना चाहिए।”

फिर पुरुषोत्तम भट्ट ने पूछा कि, “भगवान जीवों के कल्याण के लिए इस जगत का सृजन करते हैं। यदि विश्व की रचना न की गई हो, और सभी जीव माया के उदर में निवास करके रहे हों, उस समय भगवान जीवों का कल्याण करें तो क्या नहीं हो सकता, कि भगवान विश्व की रचना करने का इतना बड़ा कष्ट उठाते हैं? यही प्रश्न है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम राजाधिराज तथा अखंड मूर्ति हैं। वे अपने अक्षरधामरूपी सिंहासन पर सदैव विराजमान रहते हैं। उस अक्षरधाम के आश्रय में अनन्तकोटि ब्रह्मांड रहते हैं। जैसे किसी चक्रवर्ती राजा के असंख्य गाँव हों और उनमें एक-दो गाँव उजड़ गये हो अथवा नये निर्माण हुए हों, वह तो राजा की कोई गिनती में ही नहीं आता। वैसे ही श्रीकृष्ण भगवान अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के स्वामी हैं। उन ब्रह्माडों का एकसाथ कभी प्रलय नहीं होता। यदि उनमें से किसी एक ब्रह्मांड का प्रलय हो भी जाए, तो वह भगवान की दृष्टि में नगण्य ही रहता है। उन श्रीकृष्ण भगवान का देवकीजी से जन्म तो कथनमात्र है। वे श्रीकृष्ण सदा अजन्मा हैं। उन श्रीकृष्ण भगवान का जो अक्षरधाम है, वह व्यतिरेकभाव से प्रकृतिपुरुष से परे है तथा अन्वयभाव से वह सर्वत्र है। जिस प्रकार आकाश अन्वयभाव से सर्वत्र विद्यमान रहता है तथा व्यतिरेकभाव से वह चार भूतों से परे है, उसी तरह श्रीकृष्ण भगवान का अक्षरधाम है। उस अक्षरधाम में भगवान अखंड रूप से विराजमान रहते हैं। उस धाम में रहते हुए ही वे अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में जहाँ जिसको जैसा दर्शन देना उचित लगे, वहाँ वे उसको वैसा ही दर्शन देते हैं; और जिसके साथ बोलना उचित लगें, उससे बोलते हैं और जिसका स्पर्श करना उचित लगता है, उसका स्पर्श करते हैं। जैसे कोई सिद्ध पुरुष किसी एक ही स्थान पर बैठे रहकर भी हज़ारों कोस दूर तक देखता रहता है और सहस्रों कोस दूर की बात सुन सकता है, वैसे ही भगवान अपने अक्षरधाम में रहते हुए अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में जहाँ जैसी आवश्यकता होती है, वहाँ वैसा स्वरूप धारण करते हैं। परन्तु वे स्वयं तो सदा अक्षरधाम में ही निवास करते हैं।

“वे एक स्थान पर रहते हुए भी अनेक स्थानों में दिखाई देते हैं। यह उनकी योगकला है। जैसे रासमंडल में जितनी गोपियाँ थीं, उनके साथ उन्होंने उतने ही स्वरूप धारण किए थे। अतः एक ही स्थान में रहते हुए अनेक स्थानों में दिखना, वही भगवान की योगकलात्मक व्यापकता है। परन्तु वे आकाश की तरह अरूपभाव से व्यापक नहीं है। और, भगवान की योगमाया द्वारा पचास करोड़ योजन का पृथ्वीमंडल प्रलयकाल में परमाणुरूप हो जाता है। वह पृथ्वी फिर से सृष्टिकाल में परमाणु में से पचास करोड़ योजन हो जाती है। और, वर्षाकाल आने पर गड़गड़ाहट होती है तथा आकाश में मेघ की घटाएँ छा जाती हैं, इत्यादिक आश्चर्यजनक सभी घटनाएँ भगवान की योगमाया द्वारा घटित होती हैं।

“ऐसे जो श्रीकृष्ण भगवान हैं, वे मुमुक्षुओं के लिए सभी प्रकार से भजन करने योग्य हैं। वह इसलिए कि अन्य अवतारों में तो एक या दो कलाएँ प्रकाशित रहती हैं, जबकि श्रीकृष्ण भगवान में सभी कलाएँ विद्यमान रहती हैं। वे श्रीकृष्ण भगवान रसिक भी हैं और त्यागी भी हैं, ज्ञानी भी हैं और राजाधिराज भी हैं, कायर भी हैं और शूरवीर भी हैं, अतिशय कृपालु भी हैं और योगकला में प्रवीण भी हैं, अतिशय बलवान भी हैं और अत्यन्त छलिया भी हैं। इस प्रकार समस्त कलाओं से सम्पन्न एकमात्र श्रीकृष्ण भगवान ही हैं। उन श्रीकृष्ण भगवान के अक्षरधामाश्रित अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में से जिसकी एक सौ वर्ष की आयु पूरी हो जाती है, उस ब्रह्मांड का नाश हो जाता है, परन्तु समस्त ब्रह्मांडों का कभी भी नाश नहीं होता। अतएव, प्रलयकाल में ही क्यों कल्याण करेंगे? क्योंकि ब्रह्मांडों का अस्तित्व तो सर्वदा के लिए कहीं न कहीं तो रहता ही है! इस प्रकार, इस प्रश्न का यह समाधान है।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने परोक्षभाव से अपने पुरुषोत्तमभाव की ही वार्ता कही। जिसे सुनकर समस्त हरिभक्तों ने इस प्रकार जान लिया कि वे जो श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम हैं, वे ही भक्ति-धर्म के पुत्र ये श्रीजीमहाराज हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६४ ॥ १९७ ॥

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