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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६५

भक्तिरहित ब्रह्मज्ञान निरर्थक

संवत् १८८१ में पौष शुक्ला एकादशी (१ जनवरी, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिये, भगवान की वार्ता करते हैं।”

इस पर ताल-पखावज लेकर कीर्तन कर रहे साधुओं ने कीर्तनगान बन्द किया तथा वे सब हाथ जोड़कर वार्ता सुनने कि लिए बैठ गए।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जीव के कल्याण के लिए भगवान के जो रामकृष्णादि अवतार होते हैं, उन्हें मायाजन्य इस संसार के किसी भी कार्य से मोह नहीं होता है। वे अपने अलौकिक प्रताप द्वारा निःशंकरूप से कार्यरत रहते हैं। वे अपने भक्तजनों की भक्ति को स्वीकार करने के लिए पंचविषयों को भी अच्छी तरह भोगते हैं। यह देखकर लाल-बुझक्कड़ लोग परमेश्वर में दोष देखते हैं और ऐसा जानते हैं कि, ‘ये तो परमेश्वर कहलाते हैं, तो भी इनको हमारी अपेक्षा संसार में विशेष आसक्ति बनी हुई है।’ ऐसा जानकर वे भगवान को भी अपने जैसा मनुष्य समझने लगते हैं। परन्तु, वे भगवान की अलौकिक महिमा को नहीं जानते। यही भगवान की माया है।

“और, ब्रह्मस्थिति को प्राप्त हुए आत्मदर्शी साधुओं को भी इस संसार में किसी भी पदार्थ से मोह नहीं रहता, तब ब्रह्म से भी परे परब्रह्म श्रीकृष्ण भगवान यदि माया तथा मायाजन्य कार्य से निर्लिप्त रहें, तो इसके सम्बंध में कहने की क्या बात है? वे तो निर्लिप्त ही रहते हैं। और, आत्मनिष्ठा वाले सन्त में आत्मनिष्ठा एवं तीव्र वैराग्य, दोनों गुण रहते हैं, जिनके कारण उन्हें किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं रहता, फिर भी यदि उनमें भगवान की भक्ति न रहे तो उनका यह आचरण ठीक उसी प्रकार निरर्थक होता है, जिस तरह विविध भोजन तथा अनेक प्रकार के व्यंजनों में यदि नमक न डाला जाए, तो वह स्वादरहित लगते हैं, वैसे ही, भगवान की भक्ति से रहित अकेले ब्रह्मज्ञान एवं वैराग्य दोनों निरर्थक हो जाते हैं और दोनों सदैव अकल्याणकारी ही होते हैं। ऐसा जानकर ही शुकदेवजी ने ब्रह्मस्वरूप होने पर भी श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया था तथा वे श्रीकृष्ण भगवान में दृढ़ भक्तिभाव से जुड़े थे। अतः आत्मनिष्ठा रखनेवाले को भगवान की भक्ति न हो, तो उनमें यह एक बड़ा दूषण है।

“और जिसे भगवान में भक्ति हो, फिर भी यदि उसमें आत्मनिष्ठा एवं वैराग्य न हों, तो उसे जैसी प्रीति भगवान से होती है, वैसी ही प्रीति किसी अन्य पदार्थ में भी हो जाती है, जो भक्तिमार्गी के लिए भी एक बड़ा दूषण है। और, जो ऐसा परिपक्व भगवद्भक्त होता है, उसने तो भगवान की यथार्थ महिमा को जान लिया है, इसलिए परमेश्वर के बिना सभी पदार्थ उसे तुच्छ लगते हैं, तथा वह परमेश्वर के सिवा अन्यत्र किसी भी पदार्थ पर मोहित नहीं होता। अतएव, जब आत्मनिष्ठा, वैराग्य तथा भगवान में भक्ति ये तीनों की जिसे दृढ़ता हो, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं होगी। जो इन गुणों से युक्त होता है, उसको ही भगवान का ज्ञानी भक्त कहा जाता है, एकांतिक भक्त कहा जाता है तथा अनन्य भक्त कहा जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६५ ॥ १९८ ॥

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