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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६६

सद्‌गुरुओं के प्रश्न

संवत् १८८१ में पौष कृष्णा प्रतिपदा (५ जनवरी, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, पीले पुष्पों और लाल गुलदावदी के फूलों के हार कंठ में पहने थे और उनकी पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लगा हुआ था। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

सन्तमंडल सरोद और दुक्कड़ लेकर विष्णुपद गा रहा था। भजन के पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “आज हमें अपने बड़े-बड़े सन्तों से प्रश्न पूछने हैं।”

ऐसा कहकर उन्होंने सर्व प्रथम आनन्द स्वामी से यह प्रश्न पूछा कि, “कोई ऐसा पुरुष है कि जो अल्पबुद्धिवाला होने पर भी अपने में दोष देखता रहता है और अन्य हरिभक्तों में दोष रहने पर भी उन्हें नहीं देखता, बल्कि उनके गुणों को ही देखा करता है। तथा कोई ऐसा अन्य पुरुष है जो अधिक बुद्धिमान होने पर भी अपने अवगुणों को नहीं देखता है तथा अन्य हरिभक्तों के गुणों की उपेक्षा करके केवल उनके दोषों को ही देखा करता है। इसका क्या कारण है कि एक पुरुष तो अल्पबुद्धि होने पर भी अपने दोषों को देखता है, जबकि दूसरा अधिक बुद्धिमान होने पर भी अपने दोषों को नहीं देखता?”

तब आनन्द स्वामी ने इस पर समाधान देने का प्रयास किया, किन्तु प्रश्न का यथेष्ट समाधान न हो सका। तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यह है कि अधिक बुद्धिवाले पुरुष ने इस जन्म में अथवा किसी जन्मान्तर में भगवान के भक्त का कोई बड़ा अपराध किया है, जिसके पाप के कारण उसकी बुद्धि दोषयुक्त है। इसलिए उसे हरिभक्तों के दोष दिखाई पड़ते हैं, किन्तु अपने दोष नहीं दिखाई देते।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज ने नित्यानन्द स्वामी से पूछा कि, “भगवान को प्राप्त करने का एक ही साधन है अथवा अनेक साधनों द्वारा भी भगवान प्राप्त किए जा सकते हैं? तब आप यह कहेंगे कि, ‘ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा धर्म – ये साधनों द्वारा भगवान प्राप्त किए जाते हैं।’ जब इन चार साधनों द्वारा भगवान की प्राप्ति होती है, तब, ‘भगवान का एकमात्र आश्रय ग्रहण करने से ही कल्याण हो जाए,’ ऐसे अनन्यभाव का आधार ही कहाँ रहा?”

इस प्रश्न पर नित्यानन्द स्वामी ने अनेक प्रकार से उत्तर देकर समाधान का प्रयास किया, किन्तु प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “कल्याण तो भगवान के एकमात्र आश्रय से ही होता है। परन्तु वे अति समर्थ हैं तथा समग्र ब्रह्मादि देव भी उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। एवं समस्त ब्रह्मांडों के कारण काल-मायादि भी भगवान के भय से सावधान होकर भगवान की आज्ञा में रहते हैं। इसलिए, भगवान के भक्त को भगवान की आज्ञा का दृढ़तापूर्वक पालन करना, वही भगवान के भक्त का लक्षण है। इसलिए, सभी साधन सुदृढ़ करके रखें, परन्तु कल्याण तो एकमात्र भगवान द्वारा ही होता है। जबकि अन्य जो साधन हैं, वे भगवान की प्रसन्नता के लिए हैं।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने ब्रह्मानंद स्वामी से पूछा कि, “इस देह में स्थित जीव साकार है या निराकार?”

तब ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि, “जीव तो साकार है।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “यदि जीव साकार है, तो वह करचरणादि-युक्त हुआ, परन्तु श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में वेदस्तुति के अध्याय में ऐसा कहा गया है कि: ‘भगवान ने मनुष्य के कल्याण के लिए उसकी बुद्धि, इन्द्रियों, मन एवं प्राणों का सृजन किया है।’ यदि वह जीव साकार ही हो, तो उसके लिए बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राणों का सृजन करने की क्या आवश्यकता हो सकती है? इसलिए, ऐसे शास्त्र-वचनों को देखने से यही निष्कर्ष निकलता है कि जीव स्वरूप-स्वभाव से तो सत्तामात्र, चैतन्य तत्त्व है२५२ और अनादि-अज्ञानरूप कारणशरीर से युक्त है। जैसे चुम्बक लोहे को खींचकर उसके साथ चिपक जाता है, वैसे ही उस जीव का भी चिपकने का स्वभाव है। इसलिए, मायिक स्थूल तथा सूक्ष्म – ये दोनों शरीर उसके साथ चिपक जाते हैं और वह जीव अज्ञानवश उन शरीरों में अपनापन मान बैठता है, परन्तु वास्तव में यह जीव शरीर जैसा नहीं है।”

इस पर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जब भगवान की भक्ति द्वारा इस जीव के अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, तब इस जीव को स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीनों मायिक देहों का सम्बंध नहीं रहता। उस समय यह जीव भगवान के धाम में जाकर कैसे आकार से युक्त होकर निवास करता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब इस जीव के अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, तब इसका इन तीनों मायिक देहों के साथ संग छूट जाता है। बाद में यह जीव केवल चैतन्य सत्तामात्र रहता है, इसके पश्चात् भगवान की इच्छा से ही इस जीव के लिए भगवान की भूमि आदि आठ प्रकार की प्रकृतियों से भिन्न चैतन्य प्रकृतिजन्य देह का निर्माण होता है। उस देह से युक्त होकर ही वह भगवान के अक्षरधाम में रहता है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने गोपालानन्द स्वामी से पूछा कि, “जो अष्टांगयोग सिद्ध होता है अथवा आत्मदर्शन होता है, वह तो भगवान तथा भगवान के सन्त की कृपा से होता है। ऐसे योग अथवा आत्मदर्शन की सिद्धि के कारणरूप भगवान तथा भगवान के सन्त के प्रति उसे गौणता आ जाती है, तथा अष्टांगयोग एवं आत्मदर्शन में ही अधिकाधिक लगन लगी रहती है, उसका क्या कारण होगा?”

तब गोपालानन्द स्वामी ने कहा कि, “उसको योगाभ्यास करते हुए योगसिद्धि प्राप्त होती है, फिर उसका कुछ अभिमान आ जाता है, इसी कारण भगवान के प्रति उसकी वृत्ति कुछ गौण हो जाती है।”

तब श्रीजीमहाराज ने प्रतिप्रश्न किया कि, “जब उसकी सिद्धदशा हुई तब वह योगी ब्रह्मरूप हो जाता है, और ब्रह्म में किसी प्रकार का अभिमान होना संभव नहीं है। इसलिए यह उत्तर यथार्थ नहीं हुआ।”

तत्पश्चात् गोपालानन्द स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! यह बात तो कुछ समझ में नहीं आती। अतः आप कृपा करके बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसमें यह समझ है कि ऐसे भक्त को अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिए बड़ों के वचनों की साक्षी लेनी चाहिए। जैसे किसी व्यावहारिक कार्य को पूर्णरूप से सिद्ध करने के लिए भद्र पुरुषों की साक्षी लेनी पड़ती है, वैसे ही यहाँ भी उस भक्त को शुकदेवजी के वृत्तांत की साक्षी लेनी चाहिए कि वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप थे, फिर भी वे श्रीमद्भागवत का अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पाठ करते थे और आज तक वे भगवान की भक्ति ही करते रहे हैं।२५३ दूसरा दृष्टांत है कि शौनकादि अठासी हज़ार ऋषि स्वयं ब्रह्मस्वरूप हैं, फिर भी वे सूतपुराणी के मुख से भगवान की कथा सुनते हैं। इस प्रकार के वृत्तांतों की साक्षी भक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए लेनी चाहिए। और, अपनी जो भी कुछ न्यूनता है, वह स्वयं को समझ में न आती हो, तो उसके लिए भगवान के समक्ष प्रार्थना करनी चाहिए कि, ‘हे महाराज! मुझमें जो भी कुछ अपूर्णता हो, वह कृपा करके आप मिटा दीजिएगा।’

“जैसे किसी पुरुष के सिर पर कलंक लगा हो और उसको मिटाने के लिए कोई साक्षी न हो, तब वह लोहे के तपे हुए लाल गोले को उठाकर अपने पर लगे आक्षेप को मिटाने के लिए कसौटी में से पार उतरता है; वैसे ही अपना जो दोष नहीं दीख पड़ता हो, तब उस दोष को दूर करने के लिए भगवान की स्तुति करना, वह तो लोहे का तपा हुआ गोला हाथ में रखनेजैसा कठिन साधन है। परन्तु उसी प्रकार अपना दोष दूर करना चाहिए।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से पूछा, “यद्यपि भगवान को यथार्थ रूप से जान लिया हो और भगवान यदि कोई चमत्कार न दिखाते हों, किन्तु जन्त्र-मन्त्र करनेवाले अन्य पुरुष अगर चमत्कार दिखलाते हों तो उन्हें देखकर भगवान के भक्त का मन भगवान से कुछ विचलित हो जाता है या नहीं?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! जिस पुरुष को भगवान में यथार्थ निश्चय हो गया है, उसको भगवान के सिवा अन्यत्र कहीं भी प्रतीति ही नहीं होती। यदि कहीं अन्यत्र उसका मन भटक गया, तो उसको भगवान का सुदृढ़ निश्चय ही नहीं हुआ है। वह तो गुणबुद्धिवाला हरिभक्त कहलाता है, किन्तु वह भगवान का यथार्थ भक्त नहीं कहलाता।”

तब इस उत्तर को मान्य करते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “वही उसका उत्तर है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने शुकमुनि से पूछा कि, “भगवान के जिस भक्त ने भगवान तथा भगवान के सन्त को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर लिया हो उसको जीवित रहते हुए क्या लाभ होता है तथा मृत्यु के बाद उसे क्या उपलब्धि होती है?”

तब शुकमुनि बोले कि, “हे महाराज! इसका उत्तर तो आप ही दें, तभी सम्भव होगा।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसे भगवान तथा भगवान के सन्त की प्राप्ति हुई है, उसके तो जब तक साँस थमती नहीं, तब तक दिवस और रात्रि आजीवन भगवान की कथा तथा कीर्तन करते-करते ही व्यतीत हो जाते हैं। और, तीनों अवस्थाओं से परे जो अपनी जीवात्मा है, उसका ब्रह्मरूप भाव में साक्षात् दर्शन हो जाता है। और, उसे भगवान के सिवा अन्य सभी पदार्थमात्र से वैराग्य हो जाता है। और वह अधर्म का परित्याग करके धर्माचरण में ही प्रवृत्त रहता है। तथा ऐसा भक्त देहत्याग करता है, तब भगवान उसे स्वयं अपने समान ही बना देते हैं। जैसे भगवान ने ब्रह्माजी से कहा है कि, ‘हे ब्रह्मा! जैसा मैं हूँ तथा जैसी मेरी महिमा है तथा जैसे मेरे गुण एवं कर्म हैं, वैसे ही आपको मेरे अनुग्रह से विज्ञान प्राप्त हो!’ यह जो भगवान ने ब्रह्मा से कहा, वैसे ही भगवान अपने समस्त अनन्य भक्तों को भी ऐसी प्राप्ति कराते हैं। और, जिस प्रकार भगवान काल, कर्म तथा माया से रहित हैं वैसे ही भगवान के भक्त भी काल, कर्म और माया से रहित हो जाते हैं, तथा भगवान की निरन्तर सेवा करने में लगे रहते हैं। ऐसी प्राप्ति उसे देहान्त होने के पश्चात् होती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६६ ॥ १९९ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२५२. तथा करचरणादि अवयव रहित है तथा अणु के समान सूक्ष्म है। यही तात्पर्य है।

२५३. अर्थात् शुकदेवजी आदि योगी ब्रह्मस्वरूप होने पर भी ब्रह्म में ही स्थिति पाकर संतुष्ट नहीं थे, परंतु भगवान की भक्ति ही किया करते थे। ऐसे वृत्तांत नहीं जानने के कारण ही योगियों को भगवान एवं संत के प्रति गौणभाव रहता है और आत्मदर्शन में अधिक रुचि रहती है। अतः योगियों को अपने पुरातन सन्तपुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए!

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