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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २

तीन प्रकार के वैराग्य

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी (२२ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में रात्रि के समय विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष हो रही सभा में साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

तब मयाराम भट्ट ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! उत्तम, मध्यम तथा मन्द, तीन प्रकार का जो वैराग्य है, उसका पृथक्-पृथक् क्या लक्षण है? कृपया बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसका वैराग्य उत्तम होता है, वह परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार अथवा अपने प्रारब्ध-कर्मवश, संसार में रहता है, परन्तु संसार-व्यवहार में वह राजा जनक के समान निर्लिप्त रहता है। उसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध नामक पाँच प्रकार के उत्तम विषय अपने प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होते हैं और वह उन्हें भोगता है, परन्तु वह उनमें आसक्त नहीं होता। भोग को वह उदासीनतापूर्वक भोगता है। अतः विषय उसको लिप्त नहीं कर सकते और उसका त्याग मंद नहीं होता। वह तो विषयों में निरन्तर दोष ही देखता रहता है, तथा विषयों को शत्रु के समान समझता है। इसके अतिरिक्त वह सन्त, सत्शास्त्रों तथा भगवान की सेवा में निरन्तर मग्न रहता है और देश, काल एवं संग आदि बुरे होने पर भी उसका ज्ञान क्षीण नहीं होता। ऐसे पुरुष को उत्तम वैराग्यवान कहते हैं।

“जिसे मध्यम वैराग्य होता है, वह भी पाँचों प्रकार के उत्तम विषयों को भोगता है, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होता। यदि देश, काल और संग आदि बुरे होते हैं, तो वह विषयों की आसक्ति में फँस जाता है तथा उसका वैराग्य मंद पड़ जाता है। ऐसे पुरुष को मध्यम वैराग्यवान कहते हैं।

“जो कनिष्ठ वैराग्यवान होता है, उसे सामान्य एवं दोषयुक्त पंच विषय प्राप्त होते हैं, तो वह इनको भोगने पर भी आसक्त नहीं होता, परन्तु यदि उत्तम पंचविषय प्राप्त हो गए और वह उन्हें भोगे, तो वहाँ आबद्ध हो जाता है। ऐसे पुरुष को मंद वैराग्यवान कहते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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