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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २०

अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी कौन?

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला द्वितीया (१९ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने अपने मस्तक पर सफ़ेद पाग बाँधी थी, जिसमें पीले फूलों का तुर्रा लगा हुआ था। वे कंठ में पीले पुष्पों का हार तथा दोनों कानों में सफ़ेद और पीले पुष्पों के गुच्छ धारण किए हुए थे। उन्होंने सफ़ेद शाल ओढ़ रखी थी और काले पल्ले की धोती पहनी हुई थी। वे कथा करा रहे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज बोले कि, “सुनिये, सबसे एक प्रश्न पूछते हैं।”

तब समस्त हरिभक्तों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, “पूछिये।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी कौन है?”

सब विचार करने लगे, परन्तु कोई भी उत्तर नहीं दे पाया। फिर श्रीजीमहाराज बोले, “लीजिए. हम ही उत्तर देते हैं।”

तब सभी ने आनन्दित होते हुए कहा कि, “हे महाराज! आपसे ही यथार्थ उत्तर हो सकेगा; कृपया कहिए।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस देह में रहनेवाला जीव रूप और कुरूप को देखता है, बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था को देखता है। इस प्रकार वह अनेक पदार्थों को देखता रहता है, परन्तु देखनेवाला स्वयं अपने आपको नहीं देखता, परंतु बाह्यदृष्टि से जगतभर के पदार्थों को देखता रहता है, बल्कि स्वयं को नहीं देखता, वही अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी है। जो अपने नेत्रों से अनेक प्रकार के रूपों का रसास्वादन करता है, उसी तरह श्रोत्र, त्वक्, रसना तथा घ्राण इत्यादि इन्द्रियों द्वारा विषय-सुख का उपभोग करता है और उसी को जानता है। परन्तु, स्वयं न तो अपने सुख को भोगता है, और न तो अपने स्वरूप को भी पहचानता है, वही समस्त अज्ञानियों में अतिशय अज्ञानी है, और वही सभी पागलों में अतिशय पागल है, और वही मूर्खों में अतिशय मूर्ख है, तथा वही समस्त नीचों में अतिशय नीच है।”

तब शुकमुनि ने आशंका प्रकट की कि, “क्या अपना स्वरूप देखना अपने वश की बात है? यदि यह अपने हाथ में हो, तो जीव क्यों अतिशय अज्ञानी रहे?”

इस प्रश्न को सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे सत्संग का सुयोग हुआ है, उसे तो अपना - अर्थात् जीवात्मा का दर्शन अपने हाथ में ही है! उसने कौन-से दिन अपने स्वरूप को देखने का पुरुषार्थ किया, जो उसने न देखा? वह तो माया के अधीन रहकर, परवश होकर स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में अन्तर्दृष्टि करके प्रविष्ट होता है, किन्तु वह अपने आपकी इच्छा से कभी भी अपने स्वरूप को देखने के लिए अन्तर्दृष्टि नहीं करता। और जो जीव भगवान के प्रताप का विचार करके अन्तर्दृष्टि करता है, वह तो अपने स्वरूप को अत्यन्त उज्ज्वल और प्रकाशमान देखता है, तथा इसी प्रकाश के मध्य वह प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति को देखता है और वह नारद-सनकादिक के समान सुखी भी हो जाता है। अतः हरिभक्त में जो कसर रहती है, वह तो उसके आलस्य के कारण ही रहा करती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २० ॥

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