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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
वरताल १
निर्विकल्प समाधि
संवत् १८८२ में कार्तिक शुक्ला एकादशी (२१ नवम्बर, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर से उत्तर की ओर गोमतीजी के तट पर आम्रकुंज में सिंहासन पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत चूड़ीदार पायजामा और सफ़ेद अंगरखा पहना था, गाढ़े रंग का दुपट्टा कमर में बाँधा हुआ था और मस्तक पर सुनहरे तारों के पल्लेवाला कुसुम्भी दुपट्टा बाँधा था। उनके कन्धे पर जरी के पल्लेवाला कुसुम्भी दुपट्टा सुशोभित हो रहा था। कंठ में गुलाब के पुष्पों के हार थे, मस्तक पर गुलाब के फूलों के तुर्रे सुशोभित थे और भुजाओं में गुलाब के गजरे और बाजूबन्द लगाये थे, ऐसी शोभा को धारण किए हुए वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष साधुओं तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय वड़ोदरा निवासी शोभाराम शास्त्री ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! जब मुमुक्षु निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है, तब वह गुणातीत स्थिति को पाता है, एवं भगवान का एकान्तिक भक्त हो जाता है, किन्तु जिसे निर्विकल्प समाधि न लगी, उसकी कैसी गति होती है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “ऐसा नहीं मानना कि प्राण का निरोध होने पर ही निर्विकल्प समाधि लगती है! वास्तव में निर्विकल्प समाधि की रीति दूसरी है, उसे सुनिये। श्रीमद्भागवत में कहा गया है:
‘अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः। मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः॥’२५४“इसका अर्थ यह है कि विश्व के सर्ग-विसर्गादि नौ लक्षणों द्वारा जो ज्ञातव्य है, ऐसे आश्रयस्वरूप श्रीकृष्ण भगवान में जिस मुमुक्षु की अचल मति हो गई हो, (वही भक्त की निर्विकल्प स्थिति है) - जैसे आम के वृक्ष की एकबार अच्छी तरह पहचान हो गई, फिर शरीर में कामावेश हो जाए, या क्रोध या लोभ व्याप्त हो जाए, फिर भी आमवृक्ष के सम्बंध में किसी भी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होती कि ‘यह आम का वृक्ष होगा या नहीं?’ - उसी प्रकार जिसे प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण भगवान के स्वरूप का दृढ़ निश्चय हो गया हो और उसमें किसी भी प्रकार का कुतर्क न हो, तो उस पुरुष के प्राण लीन न होने पर भी उसे निर्विकल्प समाधि ही है और प्राणों के लीन होने पर भी निर्विकल्प समाधि ही है।
“और जिसे भगवान के स्वरूप में संकल्प-विकल्प रहता हो कि, ‘ब्रह्मपुर में भगवान का स्वरूप कैसा होगा? और श्वेतद्वीप तथा वैकुंठ में भगवान का स्वरूप कैसा होगा? तथा उस स्वरूप का दर्शन कब होगा?’ ऐसे संकल्प-विकल्पों में उलझा रहे, और उसे जो प्रकट भगवान प्राप्त हुए हैं, उन्हीं को सर्व के कारण जानकर उनकी प्राप्ति के आनन्द से ही स्वयं को कृतार्थ न माने, ऐसे पुरुष को यदि दैवच्छा से समाधि लग भी गई, फिर भी उसके संकल्प-विकल्प नहीं मिटते, तथा समाधि में हुए दर्शन के उपरांत उसे और भी नया-नया देखने की इच्छा रहा करे, लेकिन उसके मन के संकल्प-विकल्प शान्त न हों, उसे अगर समाधि लग गई तो भी वह सविकल्प ही है तथा समाधि न लगी तो भी उसकी सविकल्प स्थिति ही है! अतः जो ऐसा हो, उसे गुणातीत-एकांतिक भक्त नहीं कहा जा सकता। और, जिसे भगवान के स्वरूप का दृढ़ निश्चय हो, तो उसे समाधि लगे अथवा न लगे, फिर भी उसे तो सदा-सर्वदा निर्विकल्प समाधि ही है!”
इसके पश्चात् दीनानाथ भट्ट ने प्रश्न पूछा कि, “यदि कोई मन के संकल्प-विकल्पों को मिटाने का उपाय करे, परन्तु यदि उससे मन को नहीं जीता गया, तो उसकी कैसी गति होती है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब कौरवों और पांडवों में युद्ध प्रारम्भ हुआ, तब कौरवों तथा पांडवों ने यह विचार किया कि हमें ऐसे स्थान पर युद्ध करना चाहिए, जहाँ किसी के भी मरने पर उसकी आत्मा का कल्याण हो। ऐसा विचार करके दोनों पक्षों ने कुरुक्षेत्र में युद्ध किया। उसमें जिनकी जीत हुई उनका भी भला हुआ और संग्राम में जो मारे गए, उनको भी देवलोक की प्राप्ति हुई तथा राज्य से अधिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति हुई।
“इसी प्रकार जो कोई पुरुष मन के साथ युद्ध करता है और उसे जीत लेता है, तो उसकी निर्विकल्प स्थिति हो जाती है तथा वह भगवान का एकान्तिक भक्त हो जाता है। यदि मन के आगे उसकी हार हो गई, तो वह योगभ्रष्ट होता है तथा एक या दो जन्मों के बाद अथवा अनेक जन्मों के बाद एकान्तिक भक्त होता है। वास्तव में उसने जो प्रयास किया है, वह निष्फल नहीं होता। इसलिए, बुद्धिमान पुरुष को अपने कल्याण के लिए मन के साथ अवश्य वैर करना चाहिए। ऐसा होने पर यदि वह मन को जीत लेगा, तो भी अच्छा है, और यदि मन से उसकी हार हो गई, तो भी वह योगभ्रष्ट होगा। उसमें अन्ततः कल्याण ही होगा। अतएव जो कल्याण का इच्छुक है, उसे तो मन के साथ अवश्य वैर रखना चाहिए।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ २०१ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२५४. सर्गः - महदादि पृथ्वीपर्यंत तत्त्वों की उत्पत्ति, अर्थात् वैराजपुरुष तक की सृष्टि। विसर्गः - ब्रह्मा द्वारा की हुई सृष्टि। स्थानम् - भगवान की सर्वोत्कृष्ट शत्रु – विजयादिरूप स्थिति। पोषणम् - जगत का रक्षणरूप भगवान का अनुग्रह। ऊतयः - कर्मवासना। मन्वन्तरकथाः - सद्धर्म, भगवान द्वारा अनुगृहीत मन्वन्तराधिपों का धर्म। ईशानुकथाः - भगवान के अवतारचरित्रों की कथा तथा उनके एकान्तिक भक्तों के नानाविध आख्यानों की सत्कथा। निरोधः - जीवसमुदाय का अपनी-अपनी कर्मशक्तियों के साथ सूक्ष्मावस्थावाली प्रकृति में रहना। मुक्तिः - तीन देह एवं तीन गुणों का त्याग करके अक्षरब्रह्म के साथ ऐक्यभाव प्राप्त करके परब्रह्म की सेवा करना। आश्रयः - जिनसे जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय होता है, श्रुति-स्मृतियाँ ‘परब्रह्म परमात्मा’ इत्यादि शब्दों से जिनकी महिमा-गान करती हैं, उनकी शरणागति। (श्रीमद्भागवत: २/१०/१)