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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
वरताल २
पाँच शास्त्रों द्वारा भगवत्स्वरूप का ज्ञान
संवत् १८८२ में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी (२३ नवम्बर, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल गाँव में श्रीलक्ष्मीनारायण मन्दिर से उत्तर दिशा की ओर गोमती तालाब के तट पर आम्रवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने पीला तास का चूड़ीदार पायजामा पहना था, लाल किमखाब की बगलबंडी पहनी थी, मस्तक पर जरीदार पल्ले की कुसुम्भी पाग बाँधी थी और जरीदार पल्ले का कुसुम्भी शेला कन्धे पर डाला था, पाग में ऊपर चम्पा के पुष्पों के हार लगे हुए थे। कंठ में श्वेत पुष्पों के हार पहने हुए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “परस्पर कुछ प्रश्नोत्तरी प्रारंभ करें।”
तब बुवा गाँव के पटेल कानदासजी ने हाथ जोड़कर प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! भगवान किस प्रकार प्रसन्न होते हैं?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि भगवान के स्वरूप का द्रोह न किया जाए, तो वे प्रसन्न हो जाते हैं। तब आप कहेंगे कि द्रोह क्या है? तो वस्तुतः समस्त जगत के कर्ता-हर्ता भगवान हैं। उन्हें इस प्रकार न समझकर काल, माया, कर्म अथवा स्वभाव को विश्व का कर्ता-हर्ता समझना वही भगवान का द्रोह कहा जाता है, क्योंकि भगवान ही सबके कर्ता-हर्ता हैं। उनका त्याग करके केवल इन सबको – काल, कर्म, स्वभाव और माया को – ही कर्ता मानना भगवान का अतिद्रोह है।
“जैसे आप गाँव के पटेल हैं और यदि कोई आदमी आपकी मुखियागिरी नहीं रहने दे, तो उसे आपका द्रोही कहा जाएगा। अथवा कोई चक्रवर्ती राजा हो, उसकी आज्ञा का उल्लंघन करके जो राजा न हो ऐसी व्यक्ति का आदेश माना जाए, तो वह पुरुष राजा का द्रोही कहलाता है। और, कोई पुरुष यदि ऐसा पत्र लिख-लिखकर लोगों को भेजे कि, ‘हमारा राजा बिना नाक-कान का अथवा बिना हाथ-पैर का है।’ इस प्रकार राजा का रूप सर्वांग पूर्ण होने पर भी उस रूप को खंडित करके बतानेवाला भी राजा का द्रोही कहा जाएगा, वैसे ही भगवान कर-चरणादि समग्र अंगों से परिपूर्ण हैं, और उनका कोई अंग लेशमात्र भी खंडित नहीं है, वे सदैव मूर्तिमान ही रहते हैं। यदि उन्हें अकर्ता तथा अरूप कहा जाए और उनकी अवहेलना करके अन्य काल-आदि को कर्ता बताया जाए, तो वही भगवान के विरुद्ध द्रोह है। जिसने भगवान का ऐसा द्रोह नहीं किया है, उसके सम्बंध में यही कहा जाएगा कि उसने वास्तव में भगवान की सम्पूर्णरूप से पूजा कर ली है। इसके बिना उसने चन्दन-पुष्पादि द्वारा ही पूजा क्यों न की हो, परन्तु वह भगवान का द्रोही ही है। अतः भगवान को ही जगत का कर्ता-हर्ता समझे तथा उनको मूर्तिमान माने, उसी के ऊपर भगवान की प्रसन्नता होती है।
“और, वेदों में तो नारायण ने अपने श्रीमुख से स्वयमेव भगवान के स्वरूप का विभिन्न प्रकार से वर्णन किया है, परन्तु यह बात किसी की समझ में नहीं आई। अतः सांख्यशास्त्र के आचार्य कपिलजी ने कुल मिलाकर चौबीस तत्त्वों को स्थापित करके पच्चीसवें क्रम पर परमात्मा को कहा है, और यह विचार दिया कि स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों देह में जीवात्मा एकरस होकर रहती है, किन्तु पृथक् नहीं रह सकती। एवं ईश्वर भी अपनी उपाधि जो तीन अवस्थाएँ विराट, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत हैं इनमें एकरस रहते हैं, वे भी इन तीनों से पृथक् नहीं रह सकते। अतः सांख्यशास्त्र के अनुसार जीव और ईश्वर को चौबीस तत्त्वों में ही गिने हैं और पच्चीसवें क्रम पर परमात्मा को कहा है।
“जबकि योगशास्त्र के आचार्य हिरण्यगर्भ ऋषि ने कुल मिलाकर चौबीस तत्त्व कहे, इसके उपरांत पच्चीसवें क्रम पर जीव तथा ईश्वर को बताया, तथा छब्बीसवें क्रम पर परमात्मा को कहा है। इस प्रकार दोनों शास्त्रों ने भगवान के स्वरूप का वर्णन तो किया, परन्तु भगवान के साक्षात्कार स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ। परंतु केवल अनुमान से तो सिद्ध कर दिया कि, ‘सांख्यशास्त्र के मतानुसार जो तत्त्व चौबीस तत्त्वों से परे हैं, वह सत्य है तथा योगशास्त्र के मतानुसार चौबीस तत्त्वों से परे जीव एवं ईश्वर हैं और उनसे परे परमात्मा हैं, वह सत्य हैं।’ इस प्रकार इन दोनों शास्त्रों द्वारा परमात्मा के स्वरूप का अनुमान-ज्ञान हुआ, परन्तु वे भगवान काले हैं या पीले हैं? लम्बे हैं या ठिगने हैं? साकार है या निराकार हैं? इन प्रश्नों के विषय में कोई ज्ञान नहीं हुआ।
“तत्पश्चात् स्वयं वासुदेव भगवान ने पंचरात्र नामक तन्त्र का निर्माण किया, जिसमें यह प्रतिपादन किया कि, ‘श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने अक्षरधाम में१५५ सदा दिव्य साकार मूर्ति निवास करते हैं। वही भगवान श्वेतद्वीपवासी अनन्त निरन्नमुक्तों को पाँच बार अपने दर्शन देते हैं; और, वैकुंठलोक में वही भगवान चतुर्भुज मूर्ति द्वारा लक्ष्मीजी सहित निवास करते हैं तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करके रहते हैं। वहाँ विष्वक्सेन आदि पार्षद भगवान की सेवा करते रहते हैं। वे ही भगवान पूजनीय, भजनीय तथा प्राप्त करने योग्य हैं। वे ही भगवान रामकृष्णादि अवतारों को धारण करते हैं तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध नामक चतुर्व्यूहरूप से रहते हैं।’ इस प्रकार पंचरात्र में भगवान की साकार मूर्ति का प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् नारदजी ने उसी पंचरात्र तन्त्र की पुनः रचना की। तब, वह ‘नारद पंचरात्र’ कहलाया। उसमें नारदजी ने भगवान के स्वरूप का इस प्रकार प्रतिपादन किया कि किसी भी तरह के संशय को अवकाश नहीं रहा। इसीलिए२५६ श्रीमद्भागवत में कहा गया है:
‘नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः।नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ॥
नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥’२५७
“तथा
‘वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरामखाः।वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥’२५८
“इस प्रकार इन चार शास्त्रों द्वारा श्रीकृष्ण नारायण वासुदेव के स्वरूप का ही प्रतिपादन किया गया है। इन चार शास्त्रों द्वारा जो भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, वही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है। जैसे दूध नेत्रों से देखने पर श्वेत दिखाई पड़ता है, नाक से सूँघने पर सुगन्धमय लगता है, उंगली से छूने पर ठंडा या गरम मालूम होता है और जिह्वा से चखने पर स्वादिष्ट प्रतीत होता है, परन्तु केवल एक ही इन्द्रिय द्वारा दूध के स्वरूप का सम्पूर्ण रूप से बोध नहीं होता, वरन् सर्व इन्द्रियों के द्वारा पता लगाने पर ही उसकी पूरी जानकारी मिलती है।
“वैसे ही कोई पुरुष जब वेदादि चार शास्त्रों द्वारा भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, तभी उसे भगवान के सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान होता है। ऐसे ज्ञान को ही सम्पूर्ण ज्ञान कहते हैं। और, भगवान भी इस प्रकार के ज्ञान से ही प्रसन्न होते हैं। इसके सिवा परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए अन्य कोई उपाय नहीं है। अतएव, ऐसा विवेकशील पुरुष ही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है तथा भगवान भी उसी पर अतिशय प्रसन्न होते हैं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ २०२ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२५५. यहाँ अक्षरधाम अर्थात् वैकुंठ धाम अथवा गोलोकधाम समझना चाहिए। क्योंकि पंचरात्र तंत्र की किसी संहिताओं में परमात्मा के उन धामों का उल्लेख ‘अक्षरधाम’ कहकर कहीं नहीं हुआ है।
२५६. तथा वेदादि शास्त्रों का तात्पर्य साकार वासुदेव भगवान में ही है, इसीलिए।
२५७. वेदों में मुख्यतः नारायण ही प्रतिपादन है, अर्थात् वेद नारायण परक हैं, इन्द्रादि देवता भी नारायण के आधीन हैं, स्वार्गादि लोक के अधिपति भी नारायण ही हैं। यज्ञों द्वारा आराधना करने योग्य नारायण हैं। योग, तप, ज्ञान आदि साधनों द्वारा प्राप्य तत्त्व भी नारायण ही हैं। अतः इन सभी को नारायण परक ही समझना चाहिए। (श्रीमद्भागवत: २/५/१५-१६)
२५८. श्रीमद्भागवत: १/२/२८-२९