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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ३

सत्पुरुष के चार प्रकार

संवत् १८८२ में कार्तिक कृष्णा एकादशी (६ दिसम्बर, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर में सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में गुलाब पुष्पों के हार पहने थे तथा मस्तक पर पाग में तुर्रे लगे हुए थे। उनके समक्ष समस्त मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “जिस भक्त में ज्ञान, वैराग्य, धर्म तथा भक्ति ये चारों गुण रहते हों, उसको हमारे उद्धव सम्प्रदाय में एकांतिक भक्त कहते हैं तथा वैसा ही भक्त हमारे सत्संग में अग्रगण्य बनाने योग्य होता है। ये चार गुण जिसमें सम्पूर्णरूप से न हों, परंतु कोई एक ही गुण मुख्यतः हो, जिस एक गुण में अवशिष्ट तीनों का समावेश हो जाए, ऐसा कौन-सा एक गुण है, जो चारों में श्रेष्ठ है?”

तब गोपालानन्द स्वामी तथा मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! ऐसा गुण तो एकमात्र धर्म ही है। जिस पुरुष में धर्म हो, उसमें तीनों बातें स्वतः आ जाती हैं।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “धर्म तो कितने ही विमुख मनुष्यों में भी होता है, तो क्या सत्संग में उन्हें भी अग्रगण्य मान लेंगे?”

यह सुनकर कोई भी इसका उत्तर न दे सका। तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस भक्त के हृदय में माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति हो, और वह चाहे साधारण सी आत्मनिष्ठा, सामान्य धर्म तथा वैराग्य भी सामान्य हो रहे, तो भी वह कभी धर्मच्युत नहीं हो सकता। क्योंकि जो भक्त भगवान के माहात्म्य को समझता हो, वह भक्त यही विचार करता है कि, ‘भगवान की आज्ञा में जब ब्रह्मा आदि समस्त देव रहे हैं, तब मुझसे भगवान की आज्ञा का उल्लंघन कैसे हो सकता है?’ ऐसा जानकर वह भगवान के नियमों का निरन्तर पालन करता रहता है।”

तब शुकमुनि ने पूछा कि, “जब माहात्म्य सहित एकमात्र भक्ति में ही अन्य तीनों समाविष्ट हो जाते हैं, तब केवल भक्ति का ही प्रतिपादन क्यों नहीं किया गया और ये चार (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति) क्यों कहे गये?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “यदि भगवान में अतिशय माहात्म्य सहित भक्ति बनी रहे, तो केवल ऐसी भक्ति में ही उपरोक्त तीनों गुण आ जाते हैं। परन्तु यदि सामान्य भक्ति रही, तो केवल एकमात्र भक्ति में ही अन्य तीनों गुणों का समावेश नहीं हो पाता। इसलिए कहा गया है कि, ‘जिसमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं माहात्म्य सहित भक्ति रहती है, वही एकान्तिक भक्त है।’ ऐसी असाधारण भक्ति तो पृथुराजा किया करते थे। जब भगवान ने उनसे वर माँगने के लिए कहा, तब पृथुराजा ने भगवान की कथा सुनने के लिए दस सहस्र कान माँग लिए, किन्तु अन्य कुछ चीजें नहीं माँगीं। और, गोपियों को जब उनके स्वजनों ने रासक्रीडा में जाने से मना कर दी, तो वे देह का त्याग करके श्रीकृष्ण के पास चली गई थीं। यदि ऐसी असाधारण भक्ति हो, तो ज्ञानादि तीनों गुण अकेली भक्ति में ही आ जाते हैं।”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “ऐसी असाधारण भक्ति को प्राप्त करने का क्या उपाय है?”

इसका उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “ऐसी भक्ति बड़े सन्त की सेवा करने से प्राप्त होती है। ऐसे सत्पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे पहले तो दीपसदृश, दूसरे मशालसदृश, तीसरे बिजलीसदृश और चौथे वडवानल अग्निसदृश होते हैं। उन सत्पुरुषों में जो दीपसदृश होते हैं, वे विषयरूपी वायु से बुझ जाते हैं। जो मशाल जैसे होते हैं, वे भी उससे अधिक विषयरूपी वायु लगने से बुझ जाते हैं। जो बिजली-जैसे होते हैं, वे मायारूपी वर्षा के पानी से भी नहीं बुझ पाते। और, जो वडवानल अग्निसदृश होते हैं, वे विलक्षण ही होते हैं। जैसे वडवानल समुद्र में रहने पर भी समुद्र के जल से बुझाये जाने पर नहीं बुझ पाता और समुद्र के जल को पीकर उसे मूलद्वार से निकाल डालता है, वह पानी मीठा होता है, उसे लाकर मेघ संसार में वर्षा करते हैं, और उससे अनेक प्रकार के रस उत्पन्न होते हैं; ठीक उसी तरह जो सत्पुरुष वडवानल जैसे होते हैं, वे समुद्री जल-जैसे खारे जीवों को भी मीठा कर डालते हैं।

“इस प्रकार चार तरह के जो बड़े सन्त कहे गए हैं, उनमें से यदि बिज़ली-जैसे तथा समुद्री अग्नि-जैसे बड़े सन्त की सेवा अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए मन, कर्म तथा वचन द्वारा की जाए, तो जीव के हृदय में माहात्म्य सहित भक्ति उत्पन्न हो जाती है। यहाँ समझ लेना चाहिए कि बिजली की अग्निसदृश साधु तो साधनदशावाले भगवान के एकान्तिक साधु हैं तथा वड़वानल अग्नि-जैसे सन्त२५९ तो सिद्धदशावाले भगवान के परम एकान्तिक साधु हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ २०३ ॥

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२५९. यहाँ ‘वडवानल सदृश परम एकान्तिक साधु’ माया से परे स्थित अक्षरब्रह्मरूप सत्पुरुष का स्पष्टरूप से निर्देश करता है।

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