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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ४

वैचारिक भंवर

संवत् १८८२ में मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी (२० दिसम्बर, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान के भक्ति मार्ग में प्रवृत्त भक्त के लिए एक ही ऐसा कौन-सा साधन है, जिसको अपनाने से कल्याण के लिए प्रतिपादित अन्य सभी साधन उसी एक साधन में ही समाविष्ट हो जाएँ?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “तीस लक्षणों से युक्त सन्त का संग मन, कर्म तथा वचन द्वारा करना, तो जीतने कल्याण के लिए साधन कहे गए हैं, वे सभी उन संत की संगत में समा जाते हैं।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज स्वयं प्रश्न करने लगे कि, “भगवान का एकान्तिक भक्त जो योगी है वह समझता है कि सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्र दोनों का मत वासुदेव नारायण परक ही है। ऐसा योगी भगवान के स्वरूप में किस प्रकार वृत्ति रखता है? तथा वह अपने मन को कैसे नियन्त्रित करता है तथा अपने मन के साथ-साथ मूर्ति को किस तरह रखता है? और वह किस प्रकार अंतर में वृत्ति रखता है? तथा किस प्रकार बाह्यरूप से वृत्ति रखता है? और स्वयं को निद्रारूप लय एवं संकल्प-विकल्परूपी विक्षेप से किस प्रकार की योग-कला द्वारा अलग रखता है? ये सब बताइए!”

श्रीहरि के इन (छः) प्रश्नों को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी तथा गोपालानन्द स्वामी ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर देने का प्रयास किया, किन्तु कोई भी इनके यथेष्ट उत्तर नहीं दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस प्रकार जल के फुहारे से पानी तीव्र वेग से ऊपर की ओर उछलता है, वैसे ही अन्तःकरणरूपी फुहारे में जीव की वृत्तियाँ पाँच इन्द्रियों द्वारा तीव्र वेग से उछलती हैं। ऐसी स्थिति में योगी पुरुष दो प्रकार से अपनी वृत्तियों को बनाए रखता है। इनमें से एक वृत्ति द्वारा वह अपने हृदय में साक्षीरूप रहे श्रीवासुदेव भगवान का चिन्तन करता रहता है तथा दूसरी वृत्ति को दृष्टि द्वारा बाहर रखकर उस वृत्ति द्वारा बाह्यरूप से भगवान का चिन्तन नखशिखा पर्यन्त समग्र मूर्ति के साथ में ही करता है। परन्तु वह भगवान के एक-एक अंग का अलग-अलग चिन्तन नहीं करता। जिस प्रकार हम किसी बड़े मन्दिर को एक ही साथ समग्र दृष्टि से देख सकते हैं, तथा किसी विशाल पर्वत को एकसाथ समग्रतया ही देखा करते हैं, उसी तरह वह योगी भगवान के स्वरूप को समग्रतया देखता है, किन्तु उनके प्रत्येक अंग को अलग-अलग नहीं देखता।

“जब योगी अपनी दृष्टि के आगे कुछ दूरी पर उस मूर्ति की धारणा करता है, तब उस मूर्ति के निकट कोई अन्य पदार्थ दिखने लगे तो वह दूर धारण की हुई उस मूर्ति को निकट लाकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर उस मूर्ति को रखता है। ऐसा करने पर भी अगर मूर्ति के आसपास कुछ मायिक पदार्थ दिखाई पड़े, तो वह अपनी भृकुटि के मध्यभाग में भगवान की मूर्ति की धारणा करता है। ऐसा करने पर भी यदि आलस्य अथवा निद्रा की अहसास हो तो वह भगवान की मूर्ति की अपनी दृष्टि के समक्ष ही थोड़ी-सी दूरी पर धारणा करता है।

“जिस तरह लड़के पतंग उड़ाते हैं, वैसे ही मूर्तिरूपी पतंग को योगी अपनी वृत्तिरूपी डोरी द्वारा ऊँचा चढ़ाता है, और फिर नीचे लाकर डुलाता है। इस प्रकार योगकला द्वारा जब वह सचेत हो जाए, तब मूर्ति को पुनः नासिका के अग्रभाग में धारणा करता है। फिर वहाँ से उसे भृकुटि में लाकर मूर्ति को हृदय में उतारता है। इस प्रक्रिया से अन्तर में स्थित साक्षीरूप मूर्ति और बाहर स्थित मूर्ति को ‘एक’ कर देता है। फिर अंतःकरण की दोनों वृत्तियाँ एक हो जाती है।

“ऐसा करते समय भी यदि आलस्य अथवा निद्रा-सा प्रतीत हो, तो पुनः दोनों प्रकार की वृत्तियों द्वारा मूर्ति को बाहर ले आता है। इसी प्रकार श्रोत्र, त्वक्, रसना तथा घ्राण-इन्द्रियों द्वारा भी योगकला को सिद्ध करता है। वैसे ही मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार द्वारा भी भगवान की मूर्ति की धारणा करता है और इन्द्रियों तथा अन्तःकरण आदि सबको सांख्यविचार द्वारा पृथक् करके अकेले चैतन्य में ही भगवान की मूर्ति को धारण करता है। उन भगवान की मूर्ति को अन्तःकरण में धारण किया हो या उसे बाहर धारण किया हो, उस समय कोई व्यवहार सम्बंधी विक्षेप आड़े आ जाए, तो उस विक्षेप का भी मूर्ति की धारणा द्वारा ही समाधान कर डालता है। परन्तु विक्षेपजन्य स्थिति में भी अपनी योगकला का परित्याग नहीं करता। योगी पुरुष इस प्रकार की योगकला से युक्त होकर आचरण किया करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ २०४ ॥

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