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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ५

भगवान में माया न समझना; भक्त-भगवान की समान सेवा

संवत् १८८२ में मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी (२९ दिसम्बर, १८२५) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर से उत्तर दिशा में गोमती तालाब के किनारे पर आम्रवृक्ष के नीचे की वेदी पर बिछे हुए पलंग पर उत्तराभिमुख होकर विराजमान थे। उन्होंने बहुत बारीक श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में अनेक गुलाब पुष्पों के हार पहने थे, कानों के ऊपर बड़े दो-दो गुलाब पुष्पों के गुच्छे धारण किए थे और पाग में गुलाब के फूलों के तुर्रे लगे हुए थे। उनके समक्ष समग्र मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “आज तो कुछ जटिल प्रश्न पूछिए, ताकि सबका आलस्य समाप्त हो जाए।”

ऐसा कहकर वे स्वयं तकिया पश्चिम की ओर करके लेट गए! इसके बाद मुक्तानन्द स्वामी ने निम्न लिखित श्लोक बोलकर प्रश्न पूछा:

“‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥’२६०

“इस श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान ने यह कहा है कि, ‘जो पुरुष मुझे प्राप्त करता है, वह मेरी दुस्तर एवं गुणमयी माया को तैर जाता है।’ तब जिसको भगवान की प्राप्ति हो चुकी है, उसके अन्तःकरण में भगवान का भजन करते समय संकल्प-विकल्प का जो विक्षेप उपस्थित होता है, वह माया के अतिरिक्त और कौन करता होगा? यह प्रश्न है।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज लेटे हुए थे वे उठ बैठे, और अतिकरुणार्द्र होकर बोले कि, “माया के जो तीन गुण हैं उनमें तमोगुण के पंचभूत तथा पंच तन्मात्राएँ हैं, रजोगुण की दस इन्द्रियाँ, बुद्धि तथा प्राण हैं तथा सत्त्वगुण के मन, इन्द्रियों-अन्तःकरण के देवता हैं। पूर्वकाल में जो भक्त हो गए हैं, उन सबमें इन तीनों गुणों के कार्यरूप भूत, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा देवता रहे थे। (तो क्या वे सभी भक्त माया तैर नहीं पाए थे?) इसलिए, इसका उत्तर यह है कि जिसने परमेश्वर को यथार्थरूप में परमेश्वर जान लिया है कि, ‘इन भगवान के स्वरूप में किसी भी प्रकार का मायिक भाव नहीं है, तथा ये भगवान तो माया तथा माया के कार्यभूत तीनों गुणों से परे हैं,’ ऐसा भगवान में दृढ़ निश्चय जिसे हो चुका है, वह माया को अवश्य तैर चुका है। यद्यपि उस भक्त में माया के गुणों की प्रवृत्तियाँ जो भूत, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण एवं देवता हैं, वे अपनी-अपनी क्रिया में क्यों न प्रवृत्त होते हैं, फिर भी वह माया से पार हो चुका कहा जाएगा। क्योंकि अपने में माया की प्रवृत्तियाँ भले ही विद्यमान हों, लेकिन वह अपने भजनीय प्रकट प्रमाण श्रीवासुदेव भगवान को उन माया के गुणों से पर ही समझता है; इसलिए उसे भी माया से परे समझना चाहिए। और, माया के गुणों का प्रवेश तो ब्रह्मादि देवों तथा वसिष्ठ, पराशर एवं विश्वामित्र आदि ऋषियों में भी दिखाई पड़ा है। शास्त्रों में भी उनके दृष्टांतों का उल्लेख किया गया है। तो क्या वे मुक्त नहीं कहलाएँगे? और उनके सम्बंध में क्या यह नहीं कहा जाएगा कि उन्होंने माया को पार कर लिया है? वस्तुतः वे सब मुक्त हैं और उन सबने माया को पार कर लिया है। यदि इस प्रकार का उत्तर न दिया जाए, तो इस प्रश्न का कोई समाधान ही नहीं हो सकेगा। इसीलिए इसका यही उत्तर है।”

फिर नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! यह बात ठीक है कि भगवान के आश्रय में जाना चाहिए, परन्तु उस आश्रय का स्वरूप कैसा है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान ने गीता में कहा है कि:

‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥’२६१

“इस श्लोक में कहा गया है कि, ‘तू अन्य समस्त धर्मों का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण में ही आ जा, तो मैं तुझको समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’ जिसको भगवान का ऐसा दृढ़ आश्रय हो गया हो, उसको यदि महाप्रलय जैसा दुःख प्राप्त हो जाए, तब भी उस दुःख से रक्षा करनेवाला भगवान के बिना अन्य किसी को न माने; और स्वयं को जिस-जिस सुख की इच्छा हो, वह भी भगवान से ही याचे, लेकिन भगवान के सिवा अन्य किसी को भी सुखदायक न माने, तथा प्रभु की जैसी मर्जी हो, उसी के अनुसार ही आचरण करे, ऐसा जो भक्त है, उसी को प्रभु का शरणागत जीव कहा जाता है और वही भगवान का अनन्य भक्त कहलाता है।”

फिर नाजा भक्त ने पूछा कि, “जिसको भगवान का परिपूर्ण आश्रय न हो, फिर भी बोलचाल में पक्के हरिभक्त के समान ही निश्चय का बल प्रकट किया करता हो, उसकी सच्चाई की परख किस प्रकार से प्राप्त होती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान के भक्तों को श्रेष्ठ या कनिष्ठ निश्चय हों तो उसकी परख उसके साथ में रहने और साथ में व्यवहार करने से पूरी तरह मालूम पड़ जाता है। जिसका कनिष्ठ निश्चय होता है, वह सत्संग के भीड़े२६२ में न रहकर, दुःखित होकर अपना अलग रास्ता पकड़ लेता है तथा एकान्त में रहकर जैसा बनता है, वैसा भजन करता है, परन्तु वह हरिभक्तों के भीड़े में नहीं रह पाता। इस प्रकार, भगवान का आश्रय भी उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ रूप से तीन प्रकार का होता है, तथा उसी प्रकार भक्त के भी तीन प्रकार हो जाते हैं।”

यह सुनकर नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “ऐसी कसर मिटे, और कनिष्ठ भक्त भी उत्तम भक्त का स्थान इसी जन्म में प्राप्त कर सके, वह किस प्रकार संभव होता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसे भगवान की मानसी पूजा की जाती है, वैसे ही जो उत्तम हरिभक्त हो उसकी भी भगवान की प्रसादी से भगवान के साथ मानसी पूजा की जाए; तथा जिस प्रकार भगवान के लिए थाल अर्पण किया जाता है, वैसे ही भगवान के उत्तम भक्त के लिए भी थाल अर्पण करें, एवं जिस तरह भगवान के लिए पाँच रुपये खर्च किए जाते हैं, वैसे ही ऐसी रकम बड़े सन्त के लिए भी खर्च करे। उसी प्रकार जो पुरुष भगवान तथा उनके उत्तम लक्षणवाले सन्त की अत्यन्त ही प्रेमपूर्वक समानभाव से सेवा करता है, वह यदि कनिष्ठ भक्त हो, तथा दो जन्मों, चार जन्मों, दस जन्मों और एक सौ जन्मों के बाद भी यदि उत्तम भक्त सदृश होनेवाला हो, तो वह इसी जन्म में उत्तम भक्त हो जाता है। यह भगवान तथा उन भगवान के भक्त की समान रूप से सेवा करने का फल है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ २०५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२६०. अर्थ के लिए देखें, वचनामृत लोया १३ की पादटीप।

२६१. गीता: १८/६६

२६२. संतों-भक्तों के समूह में रहकर आपसी प्रकृति-स्वभावों को या समस्याओं को सहन करने की साधना को श्रीहरि ‘भीड़ा’ शब्द से कहते थे।

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