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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ६

जीव एवं कारण शरीर का नित्य सम्बंध

संवत् १८८२ में मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी (४ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में पुष्पहार पहने थे और पाग में तुर्रे लटक रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब चिमनरावजी ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! सभी जीव प्रथम तो प्रलयकाल में कारण शरीरयुक्त होकर माया में लीन हुए थे, और उसके पश्चात् सृष्टिकाल में उन जीवों को स्थूल-सूक्ष्म देहों की प्राप्ति हुई तथा देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चित्र-विचित्र योनियों में जन्म हुआ। वह सब कर्म से हुआ? या फिर भगवान की इच्छा से हुआ? यदि आप कहेंगे कि ऐसी स्थिति कर्म द्वारा निष्पन्न हुई, तब तो जैन शास्त्रों की सत्यता सिद्ध होगी; और, यदि यह कहेंगे कि ऐसा भगवान की इच्छा से हुआ तो भगवान में ही विषमता तथा निर्दयतारूप दोष आते हैं। अतः जो भी यथार्थ हो वह कृपा करके बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “आपको यह प्रश्न पूछना नहीं आया। क्योंकि यह जो कारण शरीर है, उसमें स्थूल एवं सूक्ष्म नामक दो शरीर बीजवृक्ष-न्याय से रहते हैं, इसीलिए इसको कारण शरीर कहते हैं। ऐसा वह कारण शरीर अविद्यात्मक है, अनादि है, और संचित कर्मों से युक्त है। और जिस प्रकार बीज तथा छिलके का नित्य सम्बंध है, तथा भूमि तथा गन्ध का नित्य सम्बंध है, वैसे ही जीव तथा कारण शरीर का नित्य सम्बंध है। और, जैसे पृथ्वी में रहनेवाले बीज वर्षाकाल में जल का योग पाकर उग आते हैं, वैसे ही माया में कारण शरीरयुक्त रहे हुए जीव उत्पत्तिकाल में फलप्रदाता परमेश्वर की दृष्टि को पाकर अपने-अपने कर्मों के अनुसार नाना प्रकार के शरीरों को पाते हैं।

“और, नास्तिक ऐसे जैन तो केवल कर्म को ही कर्ता कहते हैं, परन्तु परमेश्वर को कर्मफलप्रदाता नहीं बताते। अतः नास्तिकों का मत गलत है।

“यदि कोई काल का ही बल बतावे, तो वह भी प्रमाण नहीं हो सकता। अगर कोई अकेले कर्म का ही बल बताये, तो वह भी प्रमाण नहीं हो सकता तथा यदि कोई अकेले परमेश्वर की इच्छा का ही बल बताये, तो वह भी प्रमाण नहीं हो सकता; वास्तविक बात यह है कि जिस समय जिसकी प्रधानता रहती हो, उस समय शास्त्रों में उसी की प्रधानता बताई गई हो, अतः सभी ठिकानों पर किसी एक को प्रधान मानकर वही एक तत्त्व मुख्य है, ऐसा नहीं समझना चाहिए।

“क्योंकि सर्व प्रथम जब इस विश्व की रचना की गई थी, तब सबसे पहले जो सत्ययुग था, उस सत्ययुग में सभी मनुष्यों के संकल्प सत्य होते थे। सब लोग ब्राह्मण थे। जब वे लोग मन में संकल्प करते थे, तब उनके संकल्पमात्र से ही पुत्र की उत्पत्ति हो जाती थी। सबके घर में कल्पवृक्ष थे, और जितने मनुष्य थे, वे सब परमेश्वर का ही भजन करते थे। फिर जब त्रेतायुग आया, तब मनुष्यों के संकल्प सत्य नहीं रहे; उस समय जब लोग कल्पवृक्ष के नीचे जाकर संकल्प करते थे, तब संकल्प सत्य होते थे और स्त्री का स्पर्श करने पर पुत्र की उत्पत्ति होती थी। फिर जब द्वापरयुग आया तब स्त्री का अंगसंग करने से पुत्र की प्राप्ति होने लगी। इस प्रकार, प्रारम्भिक सत्ययुग तथा त्रेतायुग की सभी रीतियाँ उसके बाद आनेवाले सत्ययुगों तथा त्रेतायुगों में प्रचलित नहीं हो सकतीं। वह रीति तो प्रथम सत्ययुग तथा प्रथम त्रेतायुग में ही थी।

“इस प्रकार जब शुभकाल बलवान होकर प्रवृत्त होता है, तब वह जीव के अशुभ कर्मों के सामर्थ्य को न्यून कर डालता है। और, जब अतिशय दुर्भिक्ष का वर्ष आता है, तब समस्त प्रजा को दुःख उठाना पड़ता है अथवा घमासान लड़ाई होने पर जब लाखों आदमी एक ही समय में मारे जाते हैं, तो क्या उन सबका शुभ कर्म एक साथ ही समाप्त हो गया? वहाँ तो अशुभ काल का ही अतिशय सामर्थ्य रहता है और उसी ने जीवों के शुभ कर्मों के बल को हटा दिया है; अतः जब बलवान काल का वेग प्रवृत्त होता है, तब (शुभाशुभ) कर्म का मेल नहीं रहता, यदि किसी के कर्म में सुख लिखा हो, तो भी दुःख प्राप्त हो जाता है; यदि किसी के कर्म में जीवित रहना लिखा हो, तो भी वह काल के प्राधान्य से मर जाता है। इस प्रकार शास्त्र में उल्लेख मिलता है कि जब बलवान काल का ऐसा वेग हो, तब उस काल से ही सब कुछ है। यह बात भी सत्य है कि जब बहुत से मनुष्य भगवान के एकान्तिक भक्त होते हैं, तब कलियुग में भी सत्ययुग होता है। क्योंकि उस समय तो वहाँ एकान्तिक भक्तों के भगवद्भक्ति सम्बंधी शुभ कर्मों का बल शास्त्र में कहा हो, लेकिन उस समय काल का बल नहीं कहा होता। इस रहस्य को जाने बिना ही नास्तिक मतानुयायी केवल कर्म को ही सर्वकर्ता कहते हैं, परन्तु ऐसा नहीं जानते कि वह तो भगवान के एकान्तिक भक्त के कर्मों का सामर्थ्य बताया गया है किन्तु विमुख जीव के कर्मों का ऐसा सामर्थ्य नहीं कहा है।

“और, जब भगवान ऐसा संकल्प करके प्रकट होते हैं कि, ‘इस शरीर द्वारा जिन-जिन पात्र-कुपात्र जीवों के लिए मेरी मूर्ति का योग बन जाए, उन सबका कल्याण करना है।’ उस स्थिति में काल तथा कर्म का कोई भी सामर्थ्य नहीं रहता। तब तो अकेले परमेश्वर का ही सामर्थ्य रहता है।

“जैसे कि जब भगवान ने कृष्णावतार धारण किया था तब घोर पापिनी पूतना ने भगवान को विष पिलाया था, फिर भी श्रीकृष्ण भगवान ने उसको अपनी माता यशोदाजी के समान सद्‌गति प्रदान की। अन्य भी घोर पापी दैत्य थे, जो भगवान की हत्या करने के लिए आए थे; उन्हें भी श्रीकृष्ण भगवान ने परमपद प्रदान कर किया। और, अन्य भी जो-जो मुमुक्षु भावपूर्वक श्रीकृष्ण भगवान के सम्बंध को प्राप्त हुए, उन सबका उन्होंने कल्याण किया। ऐसे चरित्रों में तो परमेश्वर का ही अतिशय बल कहा गया है, किन्तु काल या कर्म का कोई सामर्थ्य होने की बात नहीं कही गई है। इसीलिए, जिस स्थान में जैसा संदर्भ हो, उस स्थान पर तदनुसार समझना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ २०६ ॥

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