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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ७

दैवी-आसुरी जीव के लक्षण

संवत् १८८२ में मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी (७ जनवरी, १८२६) को श्रीजीमहाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय हरिभक्त परस्पर भगवद्वार्ता कर रहे थे। तब ऐसा प्रसंग आया कि दैवी तथा आसुरी दो प्रकार के जीव हैं। उनमें दैवी जीव ही भगवान के भक्त होते हैं, जबकि आसुरी जीव तो भगवान से विमुख ही रहते हैं। तब चिमनरावजी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! आसुरी जीव किसी प्रकार दैवी बन सकते हैं या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “आसुरी जीव दैवी हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे जन्म से ही आसुरीभाव से युक्त होते हैं। यदि आसुरी जीव किसी प्रकार से सत्संग में आ गया हो, तो भी उसका आसुरीभाव समाप्त नहीं हो पाता। बाद में सत्संग में रहते हुए ही जब उसका देहान्त होता है, तब वह ब्रह्म में लीन हो जाता है और पुनः बाहर निकलता है। इस प्रकार वह अनेक बार ब्रह्म में लीन होता है और पुनः बाहर निकलता है। तब उसका आसुरीभाव नष्ट होता है, परन्तु, उसके बिना तो उसका आसुरीभाव नष्ट नहीं हो पाता।”

फिर शोभाराम शास्त्री ने पूछा कि, “हे महाराज! भगवान का अन्वयभाव कैसा है तथा व्यतिरेकभाव कैसा है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अन्वय-व्यतिरेक की वार्ता इस प्रकार है कि ऐसा नहीं मानना कि भगवान आधे माया में अन्वयात्मक हुए हैं और आधे अपने धाम में व्यतिरेक-भाव से रहे हैं। उसमें यह समझना कि भगवान का स्वरूप ही ऐसा है कि माया में अन्वय होते हुए भी व्यतिरेक ही हैं। परन्तु, भगवान को ऐसा भय नहीं है कि, ‘यदि मैं माया में चला जाऊँगा तो अशुद्ध हो जाऊँगा।’ वास्तविक बात यह है कि जब भगवान माया में आते हैं, तब माया भी अक्षरधामरूप हो जाती है। यदि वे चौबीस तत्त्वों में प्रविष्ट होते हैं, तो चौबीसों तत्त्व भी ब्रह्मरूप (अर्थात् माया से निर्बन्ध) हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है:

‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।’२६३

“इस प्रकार के अनेक वचनों द्वारा भगवान के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। जैसे वृक्ष के बीज में भी आकाश है और उसके बाद उस बीज में से जब वृक्ष हुआ तब इस वृक्ष की डालियाँ, पत्तियाँ, फूल और फल आदि सबमें भी आकाश ‘अन्वय’ हुआ; लेकिन जब वृक्ष को काट डालते हैं, तब वृक्ष के कट जाने पर भी उसके साथ आकाश नहीं कटता और वृक्ष को जलाने पर भी आकाश नहीं जलता। वैसे ही, भगवान भी माया तथा माया के कार्य में अन्वयात्मक होते हुए भी आकाश की तरह व्यतिरेक ही हैं। इस प्रकार भगवान के स्वरूप में अन्वय-व्यतिरेकभाव रहता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ २०७ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२६३. अर्थ के लिए देखें, वचनामृत पंचाळा ७ की पादटीप।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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