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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ८

योगी की निद्रा

संवत् १८८२ में पौष शुक्ला चतुर्थी (१२ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल में श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

मुनि दुक्कड़-सरोद लेकर कीर्तन कर रहे थे। उस समय श्रीजीमहाराज ने अन्तर्दृष्टि द्वारा ध्यानमुद्रायुक्त होकर कुछ समय तक दर्शन दिए। इसके पश्चात् अपने नेत्र कमल खोलकर समूची सभा पर दृष्टि डालकर कहने लगे कि, “अब आप सब सुनिए, हम आपको बातें कहते हैं कि इन नेत्रों की वृत्ति अरूप है, फिर भी यदि उस वृत्ति के मार्ग में कोई स्थूल पदार्थ आडे आता है, तब वह वृत्ति रुक जाती है। इसीलिए, वह वृत्ति स्थूल है तथा पृथ्वीतत्त्वप्रधान है। जब परमेश्वर का भक्त उस वृत्ति को परमेश्वर के स्वरूप में रखता है, तब वह वृत्ति सबसे पहले पतली डोरी की भाँति पीली दिखाई पड़ती है। जैसे मकड़ी अपनी लार को एक स्तम्भ से दूसरे स्तम्भ तक लम्बी करने के बाद कभी इस स्तम्भ पर तो कभी उस स्तम्भ के ऊपर चली जाती है और कभी दोनों स्तम्भों के मध्य बैठ जाती है। वैसे ही मकड़ी की जगह पर जीव है तथा एक स्तम्भ के स्थान पर भगवान की मूर्ति है और अन्य स्तम्भ के स्थान पर अपना अन्तःकरण है, और लार के स्थान पर वृत्ति है, उसके द्वारा ध्यान का करनेवाला जो योगी है, वह कभी तो भगवान के स्वरूप के साथ संलग्न हो जाता है और कभी अन्तःकरण में स्थित रहता है, और कभी अन्तःकरण तथा भगवान के मध्य में बना रहता है। ऐसी स्थिति में पृथ्वीतत्त्व-प्रधान जो पीली वृत्ति है, वह जब जलतत्त्व-प्रधान होती है, तब श्वेत दिखाई पड़ती है और जब वह अग्नितत्त्व-प्रधान होती है तब रक्त-जैसी प्रतीत होती है, वायुतत्त्व-प्रधान होने पर हरी दीख पड़ती है, तथा आकाशतत्त्व-प्रधान होने पर श्याम दिखाई पड़ती है। फिर पंचभूतों की प्रधानता मिट जाने पर जब यह वृत्ति निर्गुण हो जाती है तब अतिशय प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है और भगवान के स्वरूप के आकार को प्राप्त कर लेती है।

“अतः जो भक्त उक्त प्रकार से भगवान के स्वरूप में वृत्ति रखता हो, उसको अत्यन्त पवित्रतापूर्वक रहना चाहिए। जैसे कोई भक्त देव-पूजन के लिए तत्पर हो और देवसदृश पवित्र होकर यदि वह देव की पूजा करता है, तब देव उसकी पूजा को अंगीकार करते हैं; वैसे ही परमेश्वर में वृत्ति रखनेवाले को भी सांख्यशास्त्र की रीति से अपने स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण नामक तीन देहों से अपने स्वरूप को भिन्न समझकर तथा केवल आत्मारूप होकर परमेश्वर के स्वरूप में वृत्ति रखना चाहिए। इस प्रकार वृत्ति रखते रखते जब वह वृत्ति भगवान के स्वरूप में लीन हो जाए, तब इसी को ध्यान करनेवाले योगी की निद्रा कहा गया है, किन्तु सुषुप्ति में लीन होने की अवस्था तो योगी की निद्रा नहीं हो सकती।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ २०८ ॥

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