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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ९

समाधिजन्य आनन्द

संवत् १८८२ में पौष शुक्ला अष्टमी (१६ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे मंच पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त मुनिमंडल से प्रश्न किया कि, “राजसिक, तामसिक तथा सात्त्विक तीन प्रकार के जो मायिक सुख हैं वे जिस प्रकार तीनों अवस्थाओं में प्रतीत होते हैं, वैसे ही भगवान सम्बंधी निर्गुण आनन्द तीनों अवस्था में किस प्रकार प्राप्त होता है?”

इस प्रश्न का उत्तर समस्त मुनिमंडल मिलकर देने लगे, परन्तु किसी से भी उचित उत्तर न प्राप्त हो सका।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “पृथ्वी आदि चार भूतों के बिना अकेला ही आकाश हो और उसमें जितने तारे रहते हैं, उतने ही वहाँ चन्द्रमा हों तथा उन सबका जितना प्रकाश हो, वैसा चिदाकाश का प्रकाश है। उस चिदाकाश में भगवान की मूर्ति सदैव विराजमान रहती है। उस मूर्ति में जब समाधि लग जाए और यदि एक क्षण के लिए भी भगवान के स्वरूप में स्थिति स्थिर हो गई, तो भजन करनेवाले को ऐसा प्रतीत होगा कि, ‘हज़ारों वर्ष पर्यन्त मैंने समाधिजन्य आनन्द का उपभोग किया है।’ इस तरह भगवान के स्वरूप सम्बंधी ऐसा जो निर्गुण आनन्द है, उसकी अनुभूति होती है। और, जो मायिक सुख है, उसका उपभोग दीर्घकाल तक भी किया हो, तो भी अन्त में वह क्षणभर का ही प्रतीत होता है। अतः भगवान के स्वरूप सम्बंधी निर्गुण आनन्द अखंड एवं अविनाशी है तथा मायिक सुख तो नाशवंत है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ २०९ ॥

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