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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २१

एकान्तिक धर्म, अक्षर के दो स्वरूप

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला तृतीया (१९ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में सायंकाल पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने काले पल्ले की धोती पहनी थी और सफ़ेद शाल ओढ़ी थी। वे मस्तक पर सफ़ेद पाग बाँधे हुए थे और पूर्व की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष साधुजन झाँझ और पखावज बजाते हुए कीर्तन कर रहे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में स्थान-स्थान के साधु तथा सत्संगी बैठे हुए थे।

श्रीजीमहाराज ने उन सबको मौन रहने का संकेत किया और कहा, “सब सुनिये, एक बात बताते हैं।” इतना कहकर वे अपने नेत्रकमलों को काफ़ी देर तक बन्द करके कुछ विचार करते रहे, फिर बोले, “जिन हरिभक्तों के मन में भगवान को अतिप्रसन्न करने की इच्छा हो, तो भगवत्प्रसन्नता का उपाय यह है कि अपने-अपने वर्णाश्रमधर्म में अचल निष्ठा हो, आत्मनिष्ठा की अतिशय दृढ़ता हो, एकमात्र भगवान के सिवा अन्य समस्त पदार्थों के प्रति अरुचि हो और भगवान में माहात्म्य सहित निष्काम भक्ति हो, इन चारों साधनों के द्वारा भगवान अतिशय प्रसन्न होते हैं। इन चारों साधनों द्वारा की जानेवाली साधना को एकान्तिक धर्म कहा गया है। ऐसे एकान्तिक धर्मवाले भक्त इस समय अपने सत्संग में कुछ हैं। और भगवान के भक्तों को चाहिए कि वे खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-बैठते, समस्त क्रियाओं में भगवान की मूर्ति का चिन्तन करते रहें। तथा अंतःकरण में जब कोई विक्षेप न हो, तब भगवान का ध्यान करें एवं भगवान की मूर्ति के समक्ष देखते रहें। हृदय में संकल्प-विकल्प का कोई विक्षेप यदि आ जाए, तो देह, इन्द्रियों, अन्तःकरण, देवताओं तथा विषयों से अपने स्वरूप को भिन्न समझें; जब संकल्पों का विराम हो जाए, तब भगवान की मूर्ति का चिन्तन करें। और इस देह को अपना स्वरूप न मानें तथा देह के सम्बंधियों को भी अपना सम्बंधी न मानें; क्योंकि यह जो जीव है, वह पूर्व चौरासी लाख प्रकार की देहों को धारण करके आया है और जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं, उन सबके उदर से वह जन्म ले चुका है; तथा संसार में जितनी कुत्तियाँ, बिल्लियाँ और बंदरियाँ आदि चौरासी लाख योनियों के जीव हैं, उन सबके उदरों से उसने कितनी ही बार जन्म लिये हैं। और इस जगत में जितने प्रकार की स्त्रियाँ हैं, उनमें से किसको उसने अपनी स्त्री नहीं किया? सबको अपनी स्त्री बनाया है। उसी प्रकार इस जीव ने स्त्री-देह धारण करके संसार में जितने तरह के पुरुष हैं, उन सबको अपना पति बनाया है।

“अतः जैसे हम उन चौरासी लाख प्रकार के सम्बंधों को आज नहीं मानते हैं, और चौरासी लाख तरह की देहों को अपना शरीर नहीं मानते हैं, ठीक उसी प्रकार इस देह को अपना स्वरूप न मानें। और इस देह के सम्बन्धियों को अपना सम्बंधी भी नहीं समझना चाहिए, क्योंकि जब चौरासी लाख तरह की देहों का सम्बंध नहीं रहा, तब इस देह का भी सम्बंध नहीं रहेगा। इसलिए, देह-गृहादिक सब पदार्थों को असत्य मानकर देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से अपने स्वरूप को भिन्न समझकर, तथा अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहते हुए भगवान की निष्काम भक्ति करना; और दिन-प्रतिदिन भगवान के माहात्म्य की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए साधु का संग निरन्तर करना।

“और जिसको ऐसी समझ नहीं है, और जो केवल देहाभिमानी तथा प्राकृत मतिवाला है, उसे सत्संग में रहते हुए भी पशुवत् समझना चाहिए। और सत्संग में तो भगवान का बड़ा प्रताप है, जिससे पशु का भी कल्याण होता है, तब मनुष्य का कल्याण हो, उसमें आश्चर्य की क्या बात है? परन्तु, उसे वस्तुतः भगवान का एकान्तिक भक्त नहीं कहा जा सकता। एकान्तिक भक्त तो उसी को कहते हैं, जिसे पूर्व कही समझ हृदय में दृढ़ हो।

“ऐसा जो एकान्तिक भक्त होता है, वह देह त्याग कर तथा माया के समस्त भावों से मुक्त होकर अर्चिमार्ग२९ द्वारा भगवान के अक्षरधाम में जाता है। उस अक्षर के दो स्वरूप३० हैं। इनमें से एक तो निराकार३१ एकरस चैतन्य है। उसे चिदाकाश और ब्रह्मधाम कहते हैं। तथा वह अक्षर दूसरे रूप से३२ पुरुषोत्तम नारायण की सेवा में रहता है। उस अक्षरधाम३३ को पानेवाला भक्त भी अक्षरब्रह्म के साधर्म्य३४ को प्राप्त होता है और भगवान की सेवा में निरंतर रहता है। और उस अक्षरधाम३५ में श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नारायण सदैव विराजमान रहते हैं। और उस अक्षरधाम में अक्षर के साधर्म्य-भाव को प्राप्त हुए ऐसे अनन्त-कोटि मुक्त रह रहे हैं, जो सभी पुरुषोत्तम के दास होकर बरतते हैं। और पुरुषोत्तम नारायण उन सबके स्वामी तथा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के राजाधिराज हैं। इसलिए, हमारे समस्त सत्संगियों को केवल यही निश्चय करना चाहिए कि, ‘हमें भी इन अक्षररूप मुक्तों की पंक्ति में मिलना है और अक्षरधाम में जाकर भगवान की सेवा में निरंतर उपस्थित रहना है, किन्तु नाशवान एवं तुच्छ मायिक सुख की इच्छा नहीं करनी है और इसमें किसी भी स्थान के प्रति लुब्ध नहीं होना है।’ इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके भगवान की एकान्तिक भक्ति निरन्तर करते रहना। तथा भगवान के अतिशय माहात्म्य को यथार्थरूप में समझकर, भगवान के सिवा अन्य जो स्त्री, धन आदि समस्त पदार्थ हैं, उनकी वासना को जीवित अवस्था में ही मिटा देना! यदि भगवान के सिवा अन्य पदार्थों की वासना रह गयी, और इसी दशा में उस मुमुक्षु का देहान्त हो गया तथा भगवान के धाम में जाते समय मार्ग में उसे सिद्धियाँ दिखायी पडी, और वह भगवान को छोड़कर कर उन सिद्धियों में लुब्ध हो गया तो उसे बड़ा विघ्न उपस्थित हो जाएगा। इसलिए, समस्त पदार्थों की वासना को मिटा करके भगवान का भजन कर लेना!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२९. भगवान के धाम की ओर जानेवाले मार्ग को अर्चिमार्ग, देवयान तथा ब्रह्मपथ भी कहते हैं। उस मार्ग में प्रथम अर्चि (ज्योति) आने के कारण उसे अर्चिमार्ग कहते हैं। [ब्रह्मसूत्र (४/३/१), छांदोग्योपनिषद् (५/१०/१-२), गीता (८/२४)]

३०. साकार एवं निराकार।

३१. अनंत कोटि ब्रह्मांडों में व्यापक चिदाकाश एवं साकार होने पर भी अत्यंत विशालता के कारण निराकार सदृश धाम।

३२. दिव्य करचरणादिक अवयवों से युक्त सेवकरूप।

३३. स्थानरूप अक्षर।

३४. सेवकरूप अक्षर का साधर्म्य।

३५. साधर्म्य अर्थात् समान गुणों से युक्त। जिस प्रकार अक्षरब्रह्म अत्यंत स्नेहपूर्वक परब्रह्म की निरंतर सेवा करने की योग्यता से संपन्न है, उस प्रकार अक्षररूप मुक्त भी ऐसी ही योग्यता प्राप्त करता है; यह अक्षरब्रह्म का साधर्म्य कहा जाता है।

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