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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १०

जीव के कल्याण का उपाय

संवत् १८८२ में पौष शुक्ला एकादशी (१९ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीम वृक्ष के नीचे चौकी पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिवृन्द तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय भादरण गाँव के पाटीदार भगुभाई आए। उन्होंने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! जीव का कल्याण किस प्रकार हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इस पृथ्वी पर राजारूप तथा साधुरूप दो प्रकार से भगवान अवतार धारण करते हैं। जब वे राजारूप में पृथ्वी पर प्रकट होते हैं, तब उनचालीस लक्षणों से युक्त होते हैं और जब वे साधुरूप में प्रकट होते हैं, तब वे तीस प्रकार के लक्षणों२६४ से युक्त रहते हैं। तथा राजारूप भगवान तो चौंसठ प्रकार की कलाओं से युक्त होते हैं तथा साम, दाम, भेद तथा दंड ये चार प्रकार के उपायों से भी युक्त होते हैं। इसके उपरांत वे शृंगार आदि नवरसों से भी युक्त होते हैं। वे भगवान जब साधुरूप में रहते हैं, तब उनमें ये लक्षण नहीं होते। यदि भगवान राजारूप हों, तो आपत्काल आने पर वे मृगया करके भी जीते हैं, तथा चोरों की गर्दन भी काट डालते हैं और उनकी स्त्रियाँ भी होती हैं। परन्तु भगवान साधुरूप में होते हैं, तब वे अतिशय अहिंसा परक आचरण करते हैं, ओर हरे तृण को भी नहीं तोड़ते तथा चित्रांकित स्त्री का भी स्पर्श नहीं करते। इसलिए, साधुरूप भगवान की मूर्ति तथा राजारूप भगवान की मूर्ति की रीति एकसमान नहीं होती।

“और, श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में पृथ्वी तथा धर्म के संवाद में भगवान के राजारूप श्रीकृष्णादि अवतारों के उनचालीस लक्षण कहे गए हैं और एकादश स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान तथा उद्धव के संवाद में भगवान के साधुरूप दत्तात्रेय, कपिल आदि अवतारों के तीस लक्षण कहे गए हैं। अतः जिसको अपने कल्याण की इच्छा हो, वह उन-उन लक्षणों द्वारा भगवान को पहचान कर उन भगवान की शरण में जाएँ, तथा उनका दृढ़ विश्वास रखें और उनकी आज्ञा में रहकर उनकी भक्ति करें, यही कल्याण का उपाय है।

“और, भगवान जब पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न हों, तब भगवान से मिले हुए (एकात्मभाव को प्राप्त किए हुए) साधु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। उनसे भी जीव का कल्याण होता है। जब ऐसे साधु भी विद्यमान न हों तब भगवान की प्रतिमा में दृढ़ प्रतीति रखने से तथा स्वधर्म में रहकर भक्ति करने से भी जीव का कल्याण होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ २१० ॥

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२६४. अर्थ आदि के लिए देखें, वचनामृत गढ़डा प्रथम ७७ की पादटीप।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase