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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १२

माहात्म्य सहित निश्चय

संवत् १८८२ में पौष कृष्णा द्वितीया (२५ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीम वृक्ष के नीचे चौकी पर गद्दी-तकिया लगे हुए पलंग पर विराजमान थे।उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, तथा श्वेत पिछौरीयुक्त गुलाबी रंग की शाल ओढ़ी थी, मस्तक पर सफ़ेद पाग बाँधी थी तथा कंठ में गुलाब के पुष्पों का हार पहना था। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज काफी देर तक अन्तर्दृष्टि करके विराजम हो रहे। तत्पश्चात् अपने नेत्रकमलों को खोलकर समस्त हरिभक्तों की सभा के सामने करुणाकटाक्ष द्वारा देखकर वे इस प्रकार बोले कि, “आज तो सबसे निश्चय की बात करनी है। उसको आप सब सावधान होकर सुनें कि अनन्तकोटि सूर्य-चन्द्रमा एवं अग्निसदृश प्रकाशमान जो अक्षरधाम है, उसमें श्रीपुरुषोत्तम भगवान सदैव दिव्यमूर्ति होकर विराजमान रहते हैं। वे ही भगवान जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर रामकृष्णादि अवतारों को धारण करते हैं। तब जिसको उन भगवान के स्वरूप का सत्समागम द्वारा दृढ़ निश्चय हो जाता है, उसका जीव द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनों-दिन बढ़ता रहता है। और, जिस प्रकार चन्द्रमा में जैसे-जैसे सूर्य की कला आती रहती है, वैसे-वैसे वह चन्द्रमा भी वृद्धि को प्राप्त होता रहता है तथा पूर्णिमा के आने पर चन्द्रमा सम्पूर्ण आकार का हो जाता है, वैसे ही भगवान सम्बंधी पूर्ण निश्चय होने से पहले जीव अमावास्या के चन्द्रमा की तरह कलारहित खद्योत के समान होता है। परन्तु वह जैसे-जैसे परमेश्वर के महिमा सहित निश्चय को प्राप्त करता है, वैसे-वैसे वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान हो जाता है। फिर उसे इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण भी उसके निश्चय से डिगाने में समर्थ नहीं हो पाते। तब परमेश्वर चाहे जैसे भी चरित्र करें, परन्तु उसको भगवान में किसी भी प्रकार का दोषाभास नहीं होता। इस प्रकार जिसको महिमा सहित भगवान सम्बंधी निश्चय हो जाता है, वह भक्त निर्भय हो जाता है।

“और, यदि उसी भक्त को कभी असत् देश, असत् काल, असत् संग तथा असत् शास्त्रादि के योग द्वारा अथवा देहाभिमान द्वारा भगवान के चरित्र में सन्देह हो गया, तथा भगवान में दोष दिखाई दिया, तो वह जीव, जो पहले पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह प्रकाशमान था, अमावास्या के चन्द्रमा के समान म्लान हो जाता है। अतः अपने में कुछ थोड़ी-बहुत न्यूनता हो, वह जीव को अधिक बाधा नहीं डालती, किन्तु परमेश्वर के चरित्र में किसी भी प्रकार का सन्देह उत्पन्न हो गया अथवा परमेश्वर का किसी भी तरह से अवगुण दिखाई दिया, तो उस जीव का कल्याण-मार्ग से तत्काल पतन हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ें कट जाने पर वह वृक्ष अपने आप सूख जाता है, वैसे ही जिसको भगवान में किसी भी प्रकार की दोषबुद्धि हुई, तो वह जीव जिस किसी प्रकार से विमुख हुए बिना नहीं रहता।

“और, जिसे निश्चय का अंग दुर्बल होता है, उसको सत्संग में रहने पर भी ऐसे संकल्प-विकल्प होते रहते हैं कि, ‘क्या मालूम, मेरा कल्याण होगा या नहीं होगा और जब मैं मरूँगा तब देवता बनूँगा या राजा बनूँगा या भूत बन जाऊँगा?’ जिसको भगवान के स्वरूप का परिपूर्ण निश्चय नहीं होता, उसके हृदय में ही ऐसे संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। जिसको भगवान के स्वरूप का परिपूर्ण निश्चय हो जाता है, वह ऐसा समझता है कि, ‘जबसे मुझे भगवान मिले हैं, उस दिन से ही मेरा कल्याण हो चुका है और जो कोई मेरा दर्शन करेगा या मेरी वार्ता सुनेगा, वह जीव भी सभी पापों से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त कर लेगा।’ इसलिए, इस प्रकार भगवान का महिमा सहित निश्चय रखते हुए अपने आप में कृतार्थभाव मानना चाहिए। इस बात को सभी सावधान होकर ध्यान में रखें।”

इस बात के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “‘धन्य वृन्दावनवासी वटनी छाया रे, ज्यां हरि बेसता’२६६ इस भगवद्-माहात्म्य का कीर्तन-गान करें।”

फिर कीर्तन-गान किया गया बाद में श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीकृष्ण भगवान ने श्रीमद्भागवत में कहा है कि:

‘अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमनः फलार्हणम्।
नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ॥’२६७

“इस प्रकार परमेश्वर का योग प्राप्त करके वृक्ष का जन्म भी कृतार्थ हो जाता है। इसलिए जिस वृक्ष के नीचे भगवान बैठे हों, उस वृक्ष को भी परमपद का अधिकारी जानना तथा जिसके हृदय में भगवान की महिमा सहित ऐसा दृढ़ निश्चय न हुआ हो, उसको नपुंसक-जैसा समझना। उसके वचनों से किसी भी जीव का उद्धार नहीं हो सकता।

“जैसे कोई राजा नपुंसक हो और उसका राज्य तथा वंश विनाशोन्मुख हो जाए, फिर भी उससे अपनी स्त्री के द्वारा कोई पुत्र प्राप्त नहीं हो पाएगा। चाहे वह पूरे मुल्क के नपुंसकों को बुलवाकर उन्हें अपनी स्त्री के संग रखे, तो भी उस स्त्री को पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, वैसे ही जिसको महिमासहित भगवान का निश्चय नहीं हुआ है, उसके मुख से गीता-भागवत जैसे सद्ग्रन्थों का श्रवण करने पर भी किसी का कल्याण नहीं होता। जैसे शक्कर मिश्रित दूध में यदि सर्प की लार गिर पड़े और उसे यदि कोई पुरुष पी ले, तो उसका प्राणान्त हो जाता है। वैसे ही माहात्म्य सहित भगवान का निश्चय न हो, ऐसे जीव के मुख से गीता-भागवत को भी सुने, तो भी किसी का कल्याण नहीं होता, बल्कि उससे तो उसका जड़ से सत्यानाश हो जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ २१२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२६६. नरसिंह महेता रचित भक्तिपद; देखें परिशिष्ट: ६

२६७. हे प्रभु! अहो! आश्चर्य की बात है कि ये वृक्ष, जिन्हें तमोगुण युक्त कर्म से ऐसा जन्म प्राप्त हुआ है, देवताओं द्वारा पूजित आपके चरणारविंद की, मानो कि अपने तामसी कर्म के नाश के लिए पुष्प-फलादि सामग्री द्वारा पूजा कर रहे हैं! (श्रीमद्भागवत: १०/१५/५)

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