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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १३

ब्रह्म मूर्तिमान होते हुए भी व्यापक

संवत् १८८२ में पौष कृष्णा सप्तमी (३० जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीम वृ के नीचे चौकी पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में श्वेत पुष्पों के हार पहने थे और वे करकमलों से एक अनारफल को उछाल रहे थे। उनके समक्ष मुनिवृन्द तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। श्रीजीमहाराज के सिर पर स्वर्ण-कलश सहित छत्र लगा हुआ था। ऐसी शोभा को धारण किए हुए श्रीजीमहाराज विराजमान थे।

उस समय भादरण गाँव के पाटीदार भगुभाई ने श्रीजीमहाराज के पास आकर पूछा कि, “हे महाराज! समाधि कैसे लगती है?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर दिया कि, “जीवों के कल्याण के लिए इस भरतखंड में भगवान अवतार धारण करते हैं। वे भगवान जब राजारूप होते हैं तब उनचालीस लक्षणों से युक्त होते हैं। किन्तु वे दत्त कपिल आदि साधुओं के रूप में होते हैं तब वे तीस लक्षणों से युक्त होते हैं। यद्यपि भगवान की वह मूर्ति देखने में तो मनुष्य के समान ही लगती है, फिर भी वह अतिशय अलौकिक मूर्ति होती है। जैसे पृथ्वी पर अन्य पत्थर हैं, वैसे ही चुम्बक भी पत्थर हैं। परन्तु, चुम्बक में सहज ही ऐसा चमत्कार रहता है कि यदि चुम्बक के पर्वत के समीप जहाज जा पहुँचे, तो उसके सभी कील तक चुम्बक के पर्वत की ओर तन जाते हैं। ठीक वैसे जो जीव भगवान की राजारूपी तथा साधुरूपी मूर्तियों का श्रद्धापूर्वक दर्शन करता है, उसकी इन्द्रियाँ भगवान के सामने आकृष्ट हो जाती हैं, तब उसे समाधि लग जाती है। जैसे श्रीकृष्ण भगवान के दर्शन से समस्त गोकुलवासियों को समाधि लग गई थी, और भगवान ने समाधि में ही सभी को अपना धाम दिखाया था, उसी प्रकार जिस-जिस समय भगवान के अवतार हों उस-उस समय भगवान की मूर्ति में ऐसा चमत्कार अवश्य रहता है। अतः उस समय जो कोई भक्त श्रद्धापूर्वक भगवान का दर्शन कर ले, तो उसकी सभी इन्द्रियाँ भगवान के सामने आकृष्ट हो जाती हैं और उसे तत्काल समाधि भी लग जाती है। यदि किसी समय भगवान अनेक जीवों को अपने सम्मुख करना चाहते हों, तब अभक्त जीवों अथवा पशुओं को भी भगवान को देखकर समाधि लग जाती है। ऐसे में भगवान के भक्तों को समाधि लग जाए, इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है?”

इसके पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “सब कहते हैं कि ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है, तो जो व्यापक हो, उसे मूर्तिमान कैसे कह सकते हैं और जो मूर्तिमान हो उसे व्यापक कैसे कहा जाए?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “ब्रह्म एकदेशस्थ है, किन्तु सर्वदेशस्थ नहीं है, और वह ब्रह्म स्वयं श्रीकृष्ण भगवान हैं, जो एकदेशस्थ होते हुए भी सर्वदेशस्थ हैं। जैसे किसी पुरुष ने सूर्य की उपासना की हो, फिर सूर्य उसे अपनी जैसी दृष्टि प्रदान करते हैं, तब वह पुरुष वहाँ तक देखने में सक्षम हो जाता है, जहाँ तक सूर्य की दृष्टि पहुँचती हो। और, जैसे कोई सिद्ध दशावाला पुरुष सहस्रों-लाखों कोस की दूरी पर हो रही किसी की वार्ता को समीप में होनेवाली बातचीत की तरह सुन लेता है, वैसे ही लाखों कोस दूर पड़ी हुई किसी वस्तु को एक स्थान पर बैठे हुए अपने मनुष्य जैसे हाथों से ही उठा लेता है, वैसे ही श्रीकृष्ण भगवान एक स्थान पर रहते हुए भी अपनी इच्छा से जहाँ दर्शन देना होता है, वहाँ दर्शन देते हैं तथा एकरूप होने पर भी अनके रूपों में उद्‌भासित होते हैं। यदि सिद्धपुरुष में दूरश्रवण एवं दूरदर्शनरूपी चमत्कार रहता है, तब परमेश्वर में ऐसा चमत्कार रहे, तो इसमें क्या आश्चर्य है? ग्रन्थ में कहीं भगवान को व्यापक बताया गया है, वे मूर्तिमान भगवान ही अपने सामर्थ्य द्वारा एक स्थान पर रहते हुए भी सबको दर्शन देते हैं, इस प्रकार उनको व्यापक कहा गया है। उनको आकाश की तरह अरूप होकर व्यापक नहीं कहा गया। भगवान सदा मूर्तिमान ही हैं। वे मूर्तिमान भगवान अक्षरधाम में निवास करते हुए ही अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में उद्‌भासित होते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥ २१३ ॥

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