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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १४

धर्मिष्ठ तथा पापिष्ठ को समझने का विवेक

संवत् १८८२ में पौष कृष्णा नवमी (१ फरवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस अवसर पर वड़ोदरा के वाघमोड़िया रामचन्द्र ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! जो कुपात्र जीव हो उसे भी समाधि लग जाती है, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “धर्मशास्त्रों में जो वर्णाश्रम धर्म बताए गए हैं, उन नियमों की मर्यादा से विपरीत आचरण करता हो, उसे सभी लोग कुपात्र मनुष्य समझते हैं; परन्तु उस कुपात्र व्यक्ति के हृदय में यदि भगवान या भगवान के सन्त के प्रति गुणभाव आ जाएँ, तो उसे बड़ा पुण्य प्राप्त होता है, और वर्णाश्रम धर्म के लोप होने पर उसे जो पाप लगा था, उसका नाश हो जाता है तथा वह जीव अत्यन्त पवित्र हो जाता है। इसके पश्चात् उसका चित्त भगवान के स्वरूप में मग्न हो जाता है और उसको समाधि लग जाती है।

“और, जो पुरुष धर्मशास्त्रों में निर्दिष्ट वर्णाश्रम धर्म का पालन करता है, उसको सब ‘धर्मवान्’ कहते हैं। फिर भी, यदि वह भगवान तथा भगवान के साधुओं का द्रोह करता हो, तो उसको सत्पुरुष के द्रोह का पाप लग जाता है और वह पाप उसके वर्णाश्रमधर्म के पालन के बाद उसे जो पुण्य प्राप्त होता था, उस पुण्य को नष्ट कर देता है। इसलिए, सत्पुरुष का द्रोह करनेवाला पंचमहापाप करनेवालों की अपेक्षा भी घोर पापी है। क्योंकि जिसने पंचमहापाप किए हों, वह यदि सत्पुरुष के आश्रय में चला जाता है, तो उन पापों से उसका छुटकारा हो जाता है, परन्तु सत्पुरुष के द्रोही का कहीं भी छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं मिल सकता। कहा गया है कि अन्य स्थान में किए गए पाप तीर्थ में जाने पर धुल जाते हैं, किन्तु तीर्थ में किए हुए पाप तो वज्रलेप हो जाते हैं।

“अतः सत्पुरुष के आश्रय को ग्रहण करने पर चाहे जितना पापी हो, फिर भी अतिपवित्र हो जाता है और उसको समाधि लग जाती है। किन्तु, सत्पुरुष का द्रोही चाहे कितना ही धर्मात्मा दिखाई पड़े, परन्तु वह घोर पापी ही है। उसे तो कभी अपने हृदय में भगवान का दर्शन होता ही नहीं। अतः जिसे विमुख जीव पापी जानते हैं, वह वास्तव में पापी नहीं होता है तथा जिसे विमुख व्यक्ति ‘धर्मात्मा’ समझते हैं, वह वास्तव में धर्मात्मा नहीं होता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १४ ॥ २१४ ॥

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