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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १६

बड़े आदमी के साथ रास नहीं आता

संवत् १८८२ में पौष कृष्णा त्रयोदशी (४ फरवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीमवृक्ष के नीचे मंच पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय सभा में वड़ोदरा के शास्त्री भी बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि, “हे महाराज! यदि आप किसी बड़े आदमी को चमत्कार दिखाएँ, तो बहुत शीघ्र सर्वत्र सत्संग-विकास हो जाएगा।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “बड़े आदमी के साथ हमारी अधिक नहीं पटती। क्योंकि उन लोगों को राज्य तथा धन का मद होता है और हमें तो त्याग तथा भक्ति का मद है। इसलिए, कोई किसी के आगे झुके, यह संभव नहीं है। यदि हम किसी बड़े आदमी को समाधि लगवाएँगे, तो वह हमें कुछ गाँवों की जमींदारी दे देगा, ऐसी कोई भी लालच हमारे हृदय में नहीं है। क्योंकि, लोग गाँवों की जमींदारी में सुख की प्राप्ति समझते हैं, जबकि हमें तो नेत्र मींचकर भगवान की मूर्ति का चिन्तन करने से जो आनन्द मिलता है, वैसा आनन्द चौदह लोकों की राज्य प्राप्ति में भी नहीं मिलता। यदि भगवान के भजन करने से प्राप्त होनेवाला आनन्द राज्यशासन में मिलता होता, तो स्वायम्भुव मनु आदि बड़े-बड़े राजा अपने राज्य का परित्याग करके वन में तप करने के लिए क्यों जाते? तथा भगवान के भजन से प्राप्त होनेवाला आनन्द स्त्री-संग से मिलता होता, तो चित्रकेतु राजा करोड़ों स्त्रियों को क्यों छोड़ देता?

“और, भगवान के भजनजन्य आनन्द के आगे तो चौदह लोकों के सुख को नरक-जैसा बताया गया है। अतः जो भक्त भगवान के परमानन्द में डूबा हो, उसे पूरे ब्रह्मांड का विषय-सुख भी नरकतुल्य लगता है। तथा हमें भी भगवान के भजन से प्राप्त आनन्द में ही वास्तविक आनन्द प्रतीत होता है, अन्य सभी सुख, दुःखरूप ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, परमेश्वर का भजन-स्मरण करते जिसको सहजभाव से सत्संग हो जाता है उसे सत्संग कराते हैं, परन्तु अन्तःकरण में किसी बात का आग्रह नहीं। आग्रह तो केवल भगवान के भजन का तथा भगवान के भक्त का सत्संग बनाये रखने का ही है। यह हमारे अन्तःकरण का रहस्य अभिप्राय था, जो हमने आपके समक्ष प्रकट किया।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १६ ॥ २१६ ॥

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