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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
वरताल १७
जितेन्द्रिय-भाव
संवत् १८८२ में पौष कृष्णा अमावास्या (६ फरवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण देव के सामनेवाली हवेली में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष समस्त साधुओं तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “पंच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पंच कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को यथार्थरूप से जानती हैं। सो ज्ञानी तथा अज्ञानी दोनों अपनी-अपनी इन्द्रियों द्वारा एक समान ही व्यवहार करते हैं। परन्तु ज्ञानी की इन्द्रियाँ अज्ञानी की अपेक्षा पृथक्रूप से आचरण नहीं करतीं। ऐसी स्थिति में ज्ञानी को जितेन्द्रिय कैसे कहा जाएगा?”
तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “निर्विकल्प समाधि होने पर मुमुक्षु जितेन्द्रिय हो सकता है, ऐसा प्रतीत होता है।”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “निर्विकल्प समाधिवाले भी पंचविषयों को सब लोगों की तरह इन्द्रियों द्वारा ही ग्रहण करते हैं, ऐसी स्थिति में उसमें जितेन्द्रिय-भाव किस प्रकार संभव है?”
फिर मुक्तानन्द स्वामी ने कई प्रकार से इस प्रश्न का उत्तर दिया, किन्तु प्रश्न का समाधान नहीं हो पाया।
तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “जो जितेन्द्रिय एवं ज्ञानी है, वह शब्दादि पंचविषयों के दोषों को पहचानता है तथा वह भगवान की मूर्ति के कल्याणकारी गुणों को भी पहचानता है। तथा मायिक पंचविषयों को भोगने से जीव को नरककुंड की प्राप्ति होती है तथा उसे महादुःख भोगने पड़ते हैं, यह परम सत्य भी उसे ज्ञात होता है। ऐसे ज्ञान से उसे पंचविषयों से अत्यंत अरुचि उत्पन्न होती है। तथा उन पंचविषयों से वैर-बुद्धि हो जाती है। और यह स्वाभाविक ही है कि जिनके साथ जिसका वैर हो गया, उनके साथ उनकी प्रीति कभी संभव नहीं होती। इस प्रकार जिसका मन पंचविषयों की तरफ से बिल्कुल उचट जाता है, तब वह जितेन्द्रिय पुरुष कहलाता है। ऐसा ज्ञानी तो भगवान की श्रवण-कीर्तनादि भक्ति में ही अपना जीवन व्यतीत कर देता है। परन्तु विमुख जीव की तरह वह पंचविषयों में आसक्त नहीं होता। ऐसी स्थिति होने पर उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है।”२७०
तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने दूसरा प्रश्न किया कि, “दो प्रकार के त्यागी संत हैं: निवृत्ति मार्गवाले एवं प्रवृत्ति (भक्ति) मार्गवाले। उनमें जो केवल निवृत्ति मार्गी त्यागी सन्त हैं, वे इस तरह मानते हैं कि, ‘हम तो आत्मा हैं।’ किन्तु देह को वे अपना रूप नहीं मानते, तथा उनकी दैहिक रीति भी जड़ और उन्मत्त जैसी दिखती हो; और उन्हें जाति, वर्ण, आश्रम आदि का लेश भी अभिमान न हो; और उनका खाना-पीना, उठना-बैठना आदि सभी क्रियाएँ भी उन्मत्त-सी दिखती हों, किन्तु वे सांसारिक सभ्यता के अनुसार न लगती हों। वह इतना असंगी रहते हों कि उन्हें किसी का संग भी प्रिय न लगे; जैसे वन के मृग की भाँति वह अकेला ही उन्मत्त रूप से घूमते रहे, उन्हें किसी भी प्रकार का बन्धन भी नहीं होता। और, जो दूसरे त्यागी संत हैं, वह निवृत्तिमार्गी होने पर भी प्रवृत्तिमार्ग में प्रवृत्त होता है। और, उस प्रवृत्ति के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा आदि दोष हृदय में व्याप्त हो, वैसी क्रिया में भी उन्हें प्रवृत्त रहना होता है। ऐसे समय उनके अन्तःकरण में थोड़ा-सा विकार भी उत्पन्न हो जाता है। अतः ऐसे त्यागी को प्रवृत्तिमार्ग में रहना उचित है या नहीं? तथा प्रवृत्तिमार्ग में रहते हुए वह निर्विकार कैसे रह सकता है? आप कहेंगे कि, ‘यदि वह परमेश्वर की आज्ञा से प्रवृत्तिमार्ग में रहता है, तो उसे कोई बन्धन नहीं होगा।’ तो मेरा प्रश्न यह है कि परमेश्वर की आज्ञा से किसी ने भाँग पी ली, तो क्या वह नशे से पागल नहीं होगा? वह तो जरूर पागल होगा। अतः उस त्यागी को किस प्रकार से प्रवृत्तिमार्ग में रहना चाहिए, जिससे उसको बन्धन न होने पाए? यह प्रश्न है।”
प्रश्न सुनकर नित्यानन्द स्वामी तथा शुकमुनि इसका समाधान करने लगे, किन्तु वे इसका यथार्थ उत्तर न दे सके।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो केवल निवृत्ति धर्मवाले त्यागी हैं तथा उन्मत्त के समान आचरण करते हैं, उन्हें तो केवल आत्मनिष्ठावाला समझना। तथा जो निवृत्ति धर्मवाले त्यागी पुरुष हैं, वे तो भगवान की भक्ति से युक्त हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट नियमों का पालन करते हुए भगवान तथा भगवान के भक्त-सम्बंधी प्रवृत्तिमार्ग में सावधान होकर प्रवृत्त होना; और, उन भगवान तथा भगवान के भक्त के लिए प्रवृत्तिमार्ग में जुड़ जाना, वही भक्ति है।
“ऐसी प्रवृत्तिवाले त्यागी की कोटि में केवल आत्मनिष्ठ एवं निवृत्तिमार्गी त्यागी कभी नहीं आ सकता। क्योंकि ये तो त्यागी हैं एवं निवृत्ति मार्गवाले हैं, फिर भी भगवान तथा भगवान के भक्त की सेवा के लिए प्रवृत्ति में लगे हैं। ऐसे जो भगवान के भक्त त्यागी हों, उन्हें तो परमेश्वर के नियमों का पालन करते हुए प्रवृत्तिमार्ग में रहना चाहिए। किन्तु उन्हें परमेश्वर के नियमों का पालन करने में न तो अतिरेक करना है, और न इन नियमों के पालन में किसी तरह की न्यूनता ही रखनी है; और काम, क्रोध, लोभ, मोह, आशा, तृष्णा एवं स्वाद आदि विकारों का परित्याग करके भगवान तथा भगवान के भक्त की सेवा के लिए प्रवृत्तिमार्ग में वे लगे रहेंगे, तो उनको किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होगा। और, जो केवल आत्मनिष्ठा परक निवृत्तिमार्गी त्यागी है, उसकी अपेक्षा तो ये प्रवृत्तिमार्गी त्यागी अतिशय श्रेष्ठ हैं तथा भगवान की कृपा के पात्र हैं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥ २१७ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२७०. अज्ञानी तो केवल बिना कुछ समझे पंचविषयों में आकंठ डूबा रहता है, अतः उसमें तथा ज्ञानी में बड़ा अन्तर है।