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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १८

सम्प्रदाय की रीति

संवत् १८८२ में माघ शुक्ला प्रतिपदा (७ फरवरी, १८२६) को श्रीजीमहाराज श्रीवरताल में सन्ध्याकालीन आरती होने के पश्चात् श्रीलक्ष्मीनारायण के मंडप में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके चारों ओर मंडप के ऊपर-नीचे सभी परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “आप सब बड़े-बड़े परमहंसों से हम प्रश्न पूछते हैं कि, सत्संगीजन को कौन-कौन-सी वार्ता आवश्यकरूप से जाननी चाहिए, क्योंकि उससे यदि कोई पूछ बैठे अथवा अपने मन में कोई तर्क उपस्थित हो जाए, तो उस वार्ता के न जानने पर उसका समाधान कैसे हो सकेगा?”

ऐसा प्रश्न पूछने के पश्चात् वे स्वयमेव बोले कि, “इस प्रश्न का उत्तर हम ही देते हैं। पहली बात तो यह है कि हमें अपने उद्धव सम्प्रदाय की रीति जान लेनी चाहिए और दूसरी बात यह है कि हमें अपनी गुरुपरम्परा का ज्ञान भी होना चाहिए। श्रीरंगक्षेत्र में (हमारे गुरु) रामानन्द स्वामी ने स्वप्न में साक्षात् रामानुजाचार्य से वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की थी। इसलिए रामानन्द स्वामी के गुरु रामानुजाचार्य हैं। उन रामानन्द स्वामी के शिष्य हम हैं। ऐसी गुरुपरम्परा जाननी चाहिए। और, हमने अपने धर्मकुल की स्थापना की है, उसकी रीति जाननी चाहिए। तीसरी बात यह है कि हमारे सम्प्रदाय में अति प्रमाणरूप जो शास्त्र हैं, उनको जानना चाहिए। उन शास्त्रों के नाम हैं: (१) वेद, (२) व्याससूत्र, (३) श्रीमद्भागवतपुराण, (४) महाभारत का विष्णुसहस्रनाम, (५) भगवद्‌गीता, (६) विदुरनीति, (७) स्कन्दपुराण के विष्णुखंड का वासुदेवमाहात्म्य तथा (८) याज्ञवल्क्यस्मृति। इन आठों शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए। चौथी बात यह है कि समस्त सत्संगीजनों के लिए जो नियम निर्धारित किए गए हैं, उन्हें जान लेना चाहिए।

“पाँचवीं बात यह है कि अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण भगवान को जानना चाहिए।२७१ तथा स्थान, सेवक एवं कार्यभेद से श्रीकृष्ण भगवान की मूर्तियों की जो विविधता है, उसको भी समझना चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान के परोक्षरूप तथा प्रत्यक्षरूप को जानना चाहिए। उनमें परोक्षरूप किस प्रकार का है, तो माया के तम से परे जो गोलोक है, उसके मध्यभाग में स्थित अक्षरधाम में श्रीकृष्ण भगवान रहते हैं।२७२ वे द्विभुज हैं, तथा कोटि-कोटि सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं, श्यामसुन्दर हैं। राधिकाजी, एवं लक्ष्मीजी के सहित हैं। नन्द, सुनन्द तथा श्रीदामादि पार्षदों द्वारा उनकी सेवा की जा रही है तथा वे भगवान अनन्तकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कर्ता हैं और महाराजाधिराज भाव से विराजमान हैं। ऐसे जो ये भगवान हैं, वे चतुर्भुजरूप, अष्टभुजरूप तथा सहस्रभुजरूप को भी धारण करते हैं। वे वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध एवं प्रद्युम्न नामक चतुर्व्यूहों तथा केशवादि चौबीस व्यूहों के रूपों और वराह, नृसिंह, वामन, कपिल, हयग्रीव आदि अनेक अवतारों को धारण करते हैं। फिर भी वे स्वयं सदैव द्विभुज ही रहते हैं। उपनिषदों, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र तथा पंचरात्र में उनके इसी स्वरूप का वर्णन किया गया है। इस प्रकार, परोक्षरूप से भगवान का स्वरूप बताया गया है।

“जो सभी आचार्य हुए हैं, उनमें व्यासजी सबसे बड़े आचार्य हैं। उन व्यासजी के समान शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, विष्णुस्वामी तथा वल्लभाचार्य को नहीं कहा जाता। क्योंकि ये आचार्य जब व्यासजी के वचनों का अनुसरण करते हैं, तभी लोक में इनके वचनों को प्रमाणित माना जाता है, अन्यथा वे (प्रमाणित) नहीं कहे जाते। और, व्यासजी को किसी अन्य के वचनों की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि व्यासजी वेदों के आचार्य तथा स्वयं भगवान हैं। इसीलिए, हमें व्यासजी के वचनों का अनुसरण करना चाहिए। उन व्यासजी ने जीवों के कल्याण के लिए वेद के विभाग किए, सत्रह पुराणों तथा महाभारत की रचना की, फिर भी, व्यासजी के मन में लगा कि, ‘जीवों के कल्याण का यथार्थरूप से उपाय तो नहीं बता सका।’ इस प्रकार उनको सन्तोष नहीं हुआ। अन्त में उन्होंने समग्र वेद, पुराण, इतिहास, पंचरात्र, योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र आदि के सारांशरूप श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की।

“उस भागवत में समस्त अवतारों की अपेक्षा श्रीकृष्ण भगवान की ही अधिकाधिक महिमा कही गई है, क्योंकि समस्त अवतारों को धारण करनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ही हैं। उन श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव के प्रति गुण विभाग के अध्याय में कहा है कि, ‘मैं निर्गुण हूँ तथा जो भक्तजन मेरे सम्बंध को प्राप्त करते हैं, वे भी निर्गुण हो जाते हैं।’ इसलिए कामभाव, द्वेषभाव, भयभाव, सम्बंधभाव तथा स्नेहभाव में से जिस-जिस भाव द्वारा जिन जीवों ने उन श्रीकृष्ण भगवान का आश्रय ग्रहण किया, वे निर्गुण हो गए। इसलिए, वे श्रीकृष्ण भगवान निर्गुण हैं। इस प्रकार व्यासजी ने श्रीकृष्ण भगवान के निर्गुणभाव का वर्णन किया है तथा उन्होंने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि, ‘समस्त अवतारों को धारण करनेवाले परमेश्वर स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ही हैं तथा जो अन्य अवतार हैं, वे उन्हीं के हैं।’ यदि कोई उन श्रीकृष्ण भगवान को निर्गुण न कहकर शुद्ध सत्त्वात्मक कहेगा, तो यही कहना पड़ेगा कि उसको भगवान के पूर्वापर सम्बंध का ज्ञान ही नहीं है। अतः उसे बड़ा विक्षेप का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि गोपियों ने श्रीकृष्ण को भगवान समझकर नहीं, किन्तु कामभाव से श्रीकृष्ण भगवान का भजन किया। फिर भी गोपियाँ निर्गुण हो गईं। तब श्रीकृष्ण भगवान को शुद्ध सत्त्वात्मक कैसे कहा जा सकता है? वे तो निर्गुण ही हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा है:

‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥’२७३

“उन श्रीकृष्ण भगवान ने अपने जन्म के समय वसुदेव-देवकी को अपने परमेश्वर भाव की प्रतीति कराने के लिए चतुर्भुजस्वरूप दिखाया, ब्रह्मा को अनेक चतुर्भुजस्वरूप दिखाए, अक्रूर को शेषशायीरूप तथा अर्जुन को विश्वस्वरूप दिखलाया। इन रूपों के भेद से श्रीकृष्ण भगवान की उपासना के भेदों को बताना ठीक है। परन्तु वे व्रज में ‘बालमुकुन्द’ कहलाये, ‘मुरलीमनोहर’ तथा ‘राधा-कृष्ण’ कहलाए, तथा बछड़े चराए, गायें चराई, गोवर्धन पर्वत को धारण किया, गोपियों के साथ रासलीला की, मथुरापुरी में जाकर कंसवध किया, यादवों को सुख प्रदान किया, सांदीपिनी ब्राह्मण के घर विद्या पढ़ी, कुब्जा के साथ विहार किया, द्वारिकापुरी में निवास किया, और विवाह करके रुक्मिणी आदि आठ पटरानियाँ कीं, तथा सोलह सहस्र स्त्रियों से विवाह किया, फिर हस्तिनापुर में निवास किया, पांडवों की सभी कष्टों से रक्षा की, द्रौपदी की लाज रखी और अर्जुन के सारथी भी बने इत्यादि श्रीकृष्ण भगवान की जो भिन्न-भिन्न अनेक लीलाएँ हुई हैं, इत्यादिक लीलाओं के आधार पर भी श्रीकृष्ण भगवान के द्विभुज स्वरूप में उपासना का भेद नहीं समझना। यदि कोई ऐसी लीलाओं को देखकर उपासना-भेद करेगा, तो वह वचनद्रोही तथा गुरुद्रोही है।

“श्रीकृष्ण भगवान ने ग्वालों का उच्छिष्ट खाया एवं रासलीला की आदि अनेक प्रकार के आचरण किए हैं, तदनुसार भगवान के भक्तों को आचरण नहीं करना चाहिए। भक्तों को तो श्रीकृष्ण भगवान ने श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध, भगवद्‌गीता तथा वासुदेवमाहात्म्य में साधु के जैसे लक्षण कहे हैं, तथा वर्णाश्रम धर्म बताया है एवं अपनी भक्ति करने की जो रीति बताई है उसीके अनुसार आचरण करना। परन्तु श्रीकृष्ण भगवान के आचरणानुसार आचरण नहीं करना। यदि कोई उस प्रकार आचरण करेगा तो वह विमुख है। वह तो हमारा सत्संगी ही नहीं! जिस प्रकार अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण भगवान के आचरणों के अनुसार आचरण नहीं करना है, वैसे ही आप सबका आचार्य, गुरु तथा उपदेष्टा जो मैं हूँ,२७४ आप लोगों को मेरे दैहिक आचरण के अनुसार भी आचरण नहीं करना।

“हमारे सम्प्रदाय में जिस प्रकार जिसके धर्म बताए गए हैं, उनका हमारे वचनानुसार आप सबको पालन करना चाहिए, परन्तु हमारे आचरण का अनुकरण नहीं करना। यह जो वार्ता हमने कही है, उसे सभी परमहंस तथा सत्संगी सीख लें तथा तदनुसार समझकर वैसा ही आचरण करें। अन्य सभी को भी वैसी ही वार्ता करनी चाहिए।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज भोजन के लिए पधारे। आज की वार्ता को सुनकर सभी साधु तथा सत्संगीजन समझें कि परोक्षरूप में जिन्हें श्रीकृष्ण भगवान कहा गया है, वे ही ये भक्ति-धर्म के पुत्र श्रीजीमहाराज हैं, परन्तु उनसे परे कोई नहीं है और वे ही हमारे इष्टदेव हैं तथा गुरु भी वही हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥ २१८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२७१. श्रीहरि स्वयं रामकृष्णादिक अवतारों के कारण अवतारी हैं, ऐसी स्पष्टता उन्होंने स्वयं वचनामृत गढ़डा मध्य ९, गढ़दा मध्य १३ आदि में की है। किन्तु मनुष्य शरीर धारी होने के कारण अन्य मुमुक्षुओं के हित के लिए वे स्वयं को श्रीकृष्ण के उपासक दिखाकर उनको अपने इष्टदेव कहते हैं।

२७२. इस वचनामृत में गोलोक के बीच अक्षरधाम का उल्लेख किया है, किन्तु इसका वर्णन वासुदेवमाहात्म्य (१७-१/२) तथा स्वामी की बातें (५-२८८) में किया गया है। उसके अनुसार गोलोकादिक अनंत धामों के बीच परब्रह्म पुरुषोत्तम नारायण का अक्षरधाम सर्वोच्च है। परंतु यहाँ किया गया गोलोकधाम का उल्लेख पुरुषोत्तम नारायण के सर्वोपरि अक्षरधाम का नहीं है, ऐसा समझना।

२७३. अर्थ: “हे अर्जुन! पूर्वोक्त प्रकार से जो पुरुष मेरे जन्म-कर्म को यथार्थरूप से दिव्य जानता है, वह पुरुष देहत्याग करने के पश्चात् फिर से जन्म नहीं लेता, बल्कि मुझको ही प्राप्त कर लेता है।” (गीता: ४/९)

२७४. यहाँ ‘आप सभी का भगवान जो मैं’ ये शब्द भी श्रीहरि ने कहे थे, ऐसा गुरुपरंपरा के द्वारा ज्ञात होता है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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