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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल २०

जनकजी का ज्ञान

संवत् १८८२ में माघ शुक्ला तृतीया (१० फरवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीमवृक्ष के नीचे वेदी पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में चमेली पुष्पों के हार पहने थे तथा मस्तक के ऊपर लाल अतलस का छत्र लगा हुआ था। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से प्रश्न किया कि, “रजोगुण से काम की उत्पत्ति होती है तथा तमोगुण से क्रोध और लोभ उत्पन्न होता है। इसलिए, ऐसा कौन-सा एक साधन है, जिससे कामादि का बीज भी नष्ट हो जाए?”

तब शुकमुनि ने कहा कि, “जिस पुरुष को निर्विकल्प समाधि लग जाती है और आत्मदर्शन हो जाता है, उसके सभी कामादि के बीज नष्ट हो जाते हैं।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने आशंका प्रकट की कि, “क्या शिव, ब्रह्मा, शृंगिऋषि, पराशर तथा नारद को निर्विकल्प समाधि नहीं लगी थी कि वे काम से विक्षेप को प्राप्त हुए! वस्तुतः वे सब निर्विकल्प समाधिवाले ही थे, तो भी इन्द्रियों की वृत्ति के अनुलोम (बाह्य) हो जाने पर उन्हें कामादि द्वारा विक्षेप हुआ। इसलिए, आपके उत्तर से इस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

“जैसे ज्ञानी मनुष्य जब निर्विकल्प समाधि में चला जाता है तब निर्विकार रहता है, वैसे ही अज्ञानी पुरुष सुषुप्ति अवस्था में निर्विकार रहता है। लेकिन, जब इन्द्रियों की वृत्ति अनुलोम हो जाती है उस समय यदि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही कामादि द्वारा विक्षेप को प्राप्त होते हैं, तो ज्ञानी एवं अज्ञानी में कोई अन्तर ही क्या रहा? तथा ज्ञानी की विशेषता ही कहाँ रही? इसलिए, अब अन्य परमहंस इस प्रश्न का उत्तर दे।”

इसके पश्चात् गोपालानन्द स्वामी, देवानन्द स्वामी नित्यानन्द स्वामी तथा मुक्तानन्द स्वामी इन चारों ने मिलकर जिसको जैसा ज्ञात हुआ वैसा उत्तर दिया, फिर भी श्रीजीमहाराज के प्रश्न का किसी से भी समाधान न हो सका।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसे राजा जनक विदेही थे, वे प्रवृत्ति मार्ग में रहने पर भी निर्विकार थे। जब जनक की सभा में सुलभा नामक संन्यासिनी आई, तब जनक राजा ने सुलभा के प्रति कहा था कि, ‘तू मेरे चित्त को मोहित करने का प्रयास कर रही है, किन्तु मैं मोहित नहीं हो सकता, क्योंकि मैं अपने गुरु पंचशिख ऋषि की कृपा से सांख्य तथा योग दोनों मतों का अनुसरण करता रहा हूँ। इसलिए, भले ही मेरे आधे शरीर चन्दन लगा दिया जाए तथा आधे शरीर को तलवार से काट दिया जाए, तो भी ये दोनों क्रियाएँ मेरे लिए एक समान ही रहेंगी। और, यह मेरी मिथिलापुरी भले ही जल जाए, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जल सकेगा। इस प्रकार मैं प्रवृत्ति में रहता हुआ भी असंगी और निर्विकार हूँ।’ इस प्रकार राजा जनक ने सुलभा को सम्बोधित करते हुए कहा। और, राजा जनक शुकदेवजी के भी गुरु कहलाए।

“इसलिए, इस प्रश्न का यही उत्तर है कि, ‘किसी की इन्द्रियों की वृत्ति अनुलोमभाव से रहती हो और वह प्रवृत्तिमार्ग में रहती हो, तो भी यदि उसके हृदय में राजा जनक की तरह ज्ञान की दृढ़ता हो जाए, तो वह किसी भी प्रकार से विकारी नहीं हो सकता।’ और, जो ज्ञातव्य है, उसे वैसे ही यथार्थरूप से जिसने जान लिया हो कि यह तो सार है और यह असार है। फिर वह ऐसा जाने कि केवल एक भगवान की मूर्ति के सिवा जितने मायिक आकार हैं, वे सब अतिशय दुःखदायक तथा नाशवंत हैं और स्वयं को देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से पृथक् आत्मारूप माने, फिर ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो उसको मोहित करने में समर्थ हो सके। क्योंकि उसने तो समस्त मायिक आकारों को तुच्छ समझ लिया है। और, इस प्रकार जिसके हृदय में ज्ञान की ऐसी दृढ़ता बनी रहे और सभी इन्द्रियाँ प्रवृत्तिमार्ग में अनुलोमभाव से रही हों, तो भी वह कामादि द्वारा क्षोभ को प्राप्त नहीं हो सकेगा। ऐसे हरिभक्त के हृदय से कामादि का बीज नष्ट हो जाता है, भले ही वह त्यागी अथवा गृहस्थ ही क्यों न हो, ऐसा पुरुष ही समस्त हरिभक्तों में श्रेष्ठ वैष्णव है। इसलिए, गृही और त्यागी का कोई मेल नहीं है। जिसकी समझ तथा ज्ञान अधिक हो, उसी को सबसे बड़ा हरिभक्त समझना। और, शिव-ब्रह्मादि में जो दोष बताया जाता है, उसके सम्बंध में तो यही कहना है कि ऐसे देवताओं में से किसी में तो इस प्रकार के ज्ञान की त्रुटि रह गई है, और कइयों में तो ऐसा ज्ञान होने पर भी अशुभ देश, काल, संग तथा क्रियादि के योग से उनमें कामादि विकाररूप न्यूनता कही गई है। इसलिए, ऐसा ज्ञान होने पर भी किसी भी प्रकार से कुसंग तो करना ही नहीं, यह सिद्धान्त वार्ता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २० ॥ २२० ॥

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