share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद १

चमत्कारिक ध्यान

संवत् १८८२ में माघ कृष्णा एकादशी (४ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीअहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण के मन्दिर में पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके कंठ में गुलाब के पुष्पों के हार, कानों के ऊपर गुलाब के फूलों के गुच्छे और पाग में गुलाब के पुष्पों के तुर्रे सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस सभा में श्रीजीमहाराज अन्तर्दृष्टि करके विराजमान थे। उन्होंने नेत्रकमलों को खोलकर सबके सामने देखा और बोले कि, “हमें ध्यान के अंग की एक वार्ता करनी है। यह वार्ता मोक्षधर्म में भी कही गई है। हमने बहुत से उन महापुरुषों को भी देखा है जो उस ध्यान द्वारा सिद्धदशा को प्राप्त हो गए हैं। हमने भी यह अनुभव किया है कि यद्यपि अनन्त प्रकार के ध्यान हैं, परन्तु जो यह वार्ता कहनी है, उसके समान अन्य कोई ध्यान नहीं हो सकता। जैसे किसी चमत्कारी मंत्र अथवा औषधि में स्वाभाविक चमत्कार रहता है, वैसे ही इस ध्यान में भी, जिसे हम बतानेवाले हैं, ऐसा स्वाभाविक चमत्कार है कि कोई भी मुमुक्षु तत्काल सिद्धदशा को प्राप्त हो सकता है।

“अब यह वार्ता करते हैं - जो पुरुष इस ध्यान को करनेवाला है, उसे दक्षिण नेत्र में सूर्य का ध्यान करना, और बायें नेत्र में चन्द्र का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार ध्यान करते समय आकाश में जैसे सूर्य-चन्द्र दिखाई पड़ते हैं वैसे ही नेत्रों में भी दिखने लगें, तब दक्षिण नेत्र तपने लगेगा और बायाँ नेत्र शीतल होने लगेगा। इसके पश्चात् सूर्य की धारणा वाम नेत्र में तथा चन्द्र की धारणा दक्षिण नेत्र में करें।

“इस प्रकार धारणा करके सूर्य तथा चन्द्र को अन्तर्दृष्टि द्वारा हृदयाकाश में देखते रहना। फिर द्रष्टा जो अपनी जीवात्मा है, उसके स्वरूप को भी देखना। तथा द्रष्टा-जीवात्मा में परमात्मा का ध्यान करना। इसके पश्चात् उसका वासनालिंग-शरीर रहट की तरह हृदयाकाश में घूमता हुआ दिखाई देने लगेगा। ऐसा ध्यान करते-करते उस पुरुष को भगवान के विश्वरूप का दर्शन होता है। उस रूप में चौदह लोकों की रचना दिखाई पड़ती है। वह स्वरूप अत्यन्त महान भी नहीं दिखाई पड़ता। जैसे वटपत्रशायी भगवान ने बड़ के एक पत्ते में छोटे बालक के समान शयन किया था, उसी भगवान के उदर में मार्कण्डेय ऋषि ने समग्र ब्रह्मांड देखा। इस प्रकार भगवान का ध्यान करते-करते वे सभी पदार्थ उसे दृष्टिगोचर होते हैं, जिनका वर्णन शास्त्रों में किया गया है। तब उसकी जीवात्मा में रहनेवाला अवशिष्ट नास्तिकभाव मिट जाता है और उसका जीव अति बलवान हो जाता है। उसे इस बात की दृढ़ प्रतीति होती है कि शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है, वह सब सत्य है। और, अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ भी इस ध्यान को करनेवाले उस पुरुष के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं। तब उसकी दृष्टि वहाँ तक पहुँचने लगती है, जहाँ तक सूर्य-चन्द्र की किरणें पहुँचती रहती हैं। ऐसी अनन्त सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। परन्तु, परमेश्वर का भक्त होने के कारण वह पुरुष इन सिद्धियों में से किसी भी सिद्धि को ग्रहण नहीं करता, केवल परमेश्वर का ही ध्यान करता है। तब ध्यान करनेवाला वह पुरुष नारद-सनकादि तथा शुकदेवजी के समान चरम सिद्धदशा को प्राप्त होता है। अतः अनेक प्रकार के ध्यान हैं किन्तु तत्काल सिद्धदशा को प्राप्त करनेवाला ध्यान तो यही है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “ऐसा ध्यान अष्टांगयोग के मार्ग द्वारा प्राणायाम करनेवाले को सिद्ध होता है या दूसरों को भी सिद्ध होता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसमें प्राणायामवाले का कोई मेल नहीं है। यदि कोई ऐसे ध्यान का अभ्यास करता रहे, और यदि वह परमेश्वर का एकान्तिक भक्त हो, तो उसी को यह ध्यान सिद्ध हो जाता है। अन्य जीव तो इस मार्ग पर कदम भी नहीं रख पाते! अतः ध्यान के अधिकारियों के लिए तो इस ध्यान के अलावा अन्य कोई तत्काल सिद्ध होने का उपाय ही नहीं है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ २२१ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase