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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
अहमदाबाद २
ब्रह्मरूप होकर भगवत्प्रीति करना
संवत् १८८२ में फाल्गुन शुक्ला एकादशी (२० मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्री अहमदाबाद में श्रीनरनारायण के मन्दिर के सामने स्थित वेदी पर पलंग के ऊपर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी। श्वेत चादर ओढ़ी थी तथा मस्तक पर गुलाबी रंग का फेंटा बाँधा था। पाग में गुलाब के पुष्पों के तुर्रे झुक रहे थे। उन्होंने कानों पर गुलाब के दो गुच्छ खोंसे थे, कंठ में गुलाब के पुष्पों के हार धारण किए थे, दोनों भुजाओं में गुलाब के बाजूबंद बाँधे थे और दोनों हाथों में गुलाब के पुष्पों के गज़रे पहने थे। इस प्रकार समस्त अंगों में गुलाब के पुष्प महक रहे थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज समस्त परमहंसों को संबोधित करके बोले कि, “एक प्रश्न पूछता हूँ - परमेश्वर का एक भक्त तो जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परे रहकर मलिन रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण का परित्याग करके शुद्ध सत्त्वमय२७५ आचरण करता हुआ परमेश्वर का भजन करता है, जबकि अन्य भक्त त्रिगुणात्मक वर्तन करता है और परमेश्वर से अतिशय प्रीति से युक्त रहता है। इन दोनों भक्तों में कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है?”
तब सन्तमंडल ने कहा कि, “भगवान से प्रीति करनेवाला भक्त ही श्रेष्ठ है।”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक भक्त तो स्नान करके पवित्र होकर भगवान की पूजा करता है तथा अन्य पुरुष अपवित्र रहकर ही भगवान का पूजन करता है। इन दोनों में कौन-सा पुरुष श्रेष्ठ है?”
तब मुनिमंडल ने कहा कि, “जो पवित्र होकर भगवान की पूजा करता है, वही भक्त श्रेष्ठ है।”
फिर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जो मायिक उपाधि को छोड़कर भगवान का भजन करता है, उसे आप कनिष्ठ बताते हैं तथा मायिक उपाधि के साथ ही भगवान से प्रीति करता है, उसको आप श्रेष्ठ कहते हैं। वह किस प्रकार श्रेष्ठ है?”
जब इस प्रश्न का किसी से समाधान न हो सका तब श्रीजीमहाराज बोले, “गीता में चार प्रकार के भक्त बताए गए हैं। उनमें ज्ञानी को ही भगवान ने अपनी आत्मा कहा है। अतः जो मायिक उपाधि का त्यागकर और ब्रह्मरूप होकर भगवान का भजन करता है, वही भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि नित्य प्रलय जो सुषुप्ति अवस्था है, निमित्त प्रलय जो ब्रह्मा की सुषुप्ति अवस्था है, प्राकृत प्रलय जिसमें प्रकृति के समस्त कार्य प्रकृति में विलीन हो जाते हैं, तथा आत्यन्तिक प्रलय जो ज्ञानप्रलय है, जिसमें प्रकृतिपर्यन्त समस्त तत्त्व ब्रह्म के प्रकाश में विलीन हो जाते हैं।
“और, नित्य प्रलय में जीव की उपाधि लीन हो जाती है, निमित्त प्रलय में ईश्वर की उपाधि विलीन हो जाती है, प्राकृत प्रलय में पुरुष की उपाधि सब लीन हो जाती है, परन्तु जब सृष्टि का सृजन होता है, तब इन तीनों (जीव, ईश्वर, पुरुष) को अपनी-अपनी उपाधियाँ लिपट जाती हैं। और आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् ज्ञानप्रलय के द्वारा जिसने मायिक उपाधि का परित्याग कर दिया है, उसको तो पुनः कभी मायिक उपाधि नहीं लिपटती। और, यदि उसे कदाचित् शरीर धारण करना पड़ा, तो वह उसी प्रकार स्वतंत्ररूप से देह धारण करता है, जिस प्रकार भगवान स्वतंत्ररूप से देह धारण करते हैं, लेकिन काल, कर्म और माया के अधीन होकर वह देह धारण नहीं करता। इसलिए, ब्रह्मरूप होकर परमेश्वर का भजन करनेवाला भक्त ही श्रेष्ठ है। इस वार्ता को केवल वही पुरुष समझ सकता है, जो परमेश्वर का अनन्य भक्त है तथा एकान्तिक भक्तों के लक्षणों से युक्त है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ २२२ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२७५. अर्थात् ‘गुणातीत’