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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ३

उपशम स्थिति

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा द्वितीया (२५ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्री अहमदाबाद में श्रीनरनारायण के मन्दिर के सामने चबूतरे पर बिछाए गए पलंग पर विराजमान थे। उनके मस्तक पर गुलाबी रंग की पाग सुशोभित हो रही थी। उस पाग में गुलाब और चमेली के हार लगे हुए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त मुनिमंडल से प्रश्न पूछा कि, “जीवमात्र का आधार तो पंचविषय हैं। वे या तो पंचविषयों को बाह्यरूप से भोगते हैं अथवा बाह्य पंचविषयों का योग न होने पर अन्तःकरण में पंचविषयों का चिन्तन किया करते हैं, परन्तु वे बिना विषयों के चिन्तन तथा बिना विषयों के उपभोग के क्षणमात्र भी नहीं रह सकते। जैसे वटवृक्ष की जड़ें ही वृक्ष को हरा रखती हैं, परन्तु यदि अन्य सभी जड़ें उखड़ गईं और केवल पृथ्वी में एक ही जड़ रह गई, तो वह भी वृक्ष को हरा बनाए रखती है। वैसे ही बाह्यरूप से कदाचित् पंचविषयों का परित्याग कर दिया हो, परन्तु अन्तःकरण में विषयों का चिन्तन बना रहता हो, तो वह उसके जन्म-मरण का हेतु है। ऐसे पंचविषय परमेश्वर के भक्त को किस प्रकार जन्म-मरण के हेतु न बनें? यह प्रश्न है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने इस प्रश्न का उत्तर अपनी समझ के अनुसार दिया, किन्तु यथार्थरूप से समाधान नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “लीजिए, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं, कि जो भक्त मायामय तीनों शरीरों की भावना से रहित रहकर केवल आत्मसत्तारूप होकर परमेश्वर की मूर्ति का चिन्तन करता है तथा भगवान के चिन्तन के बल से जब उसकी उपशम अवस्था हो जाती है, तब उस भक्त को उपशमावस्था के कारण ये पंचविषय जन्म-मरण के हेतु नहीं बनते। जैसे मही या साबरमती जैसी नदी के जल का प्रवाह दोनों किनारों पर पूर्ण वेग से बहता हो, तो उसमें हाथी, घोड़ा या वृक्ष भी बह जाते हैं और वहाँ कोई स्थिर नहीं रह पाते, वैसे ही उपशम अवस्थावाले को भी चाहे कैसे ही रमणीय भोग इन्द्रियगोचर हो गए हों, परन्तु जब वह अन्तःसम्मुख दृष्टि करे, तब उसे उनकी उसी प्रकार विस्मृति हो जाती है, जिस तरह पूर्वजन्म में देखी हुई वस्तुओं का इस जन्म में विस्मरण हो जाया करता है। जिस भक्त की ऐसी स्थिति रहती हो, उसे उपशमावस्था कहा जाता है।

“इस उपशम की महिमा अतिशय महान है। इस संसार में जैसे किसी स्त्री-पुरुष में विवाह के पूर्व अत्यन्त प्रीति रही हो और विवाह के पश्चात् उन्हें तीन रात तथा तीन दिन तक जागरण कराया जाए तथा उन्हें दूर-दूर तक चलाया जाए तब दोनों को साथ-साथ रहते हुए भी निद्रा तथा थाक के कारण एक-दूसरे के रूप या स्पर्श का सुख भोगने का सामर्थ्य नहीं रहता। वे दोनों परस्पर आलिंगनबद्ध होने पर भी इस तरह सोते रहते हैं, जैसे दो लकड़े को एकसाथ बाँधकर रख दिया हो, वैसे सोये हुए रहते हैं, लेकिन उन दोनों को पंचविषयों में से एक भी विषय का सुख प्राप्त नहीं होता। ये दोनों अज्ञानावस्था में सुषुप्ति अवस्था के कारण उपशम को प्राप्त हो गए हैं, तो भी उन्हें किसी भी प्रकार के विषयों का भान नहीं रहता; फिर जो ज्ञानी है, तथा परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान करके जो उपशमदशा को प्राप्त हुआ है, उसे पंचविषय क्या बाधा डाल सकते हैं? वे तो कभी नहीं बाधा डाल सकते। अतः जिसने उपशमदशा को प्राप्त कर लिया हो, उसे पंचविषय जन्म-मरण के हेतु नहीं बनते हैं।”

फिर नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि, “आत्मरूप होकर भगवान का ध्यान करने का जो उपाय आपने उपशमदशा की सिद्धि के लिए बताया है, वह तो अत्यन्त कठिन है। इसलिए, इसके अतिरिक्त कोई अन्य सुगम उपाय हो, तो वही बताइए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक तो जो भक्त भगवान के माहात्म्य को अधिक से अधिक समझता हो तथा दूसरा, भगवान एवं भगवान के भक्त की सेवा-चाकरी करता हो और उनके दर्शन करने में अत्यधिक अटूट श्रद्धा रखता हो, ऐसा जो भगवान तथा भक्त है, उसको वह उपशम दशा प्राप्त होती है। किन्तु हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जो सेवक मानी होगा वह किसी को भी प्रिय नहीं लगेगा। वास्तव में मानी सेवक से सेवा-शुश्रूषा कराना वैसा ही है, जैसे दुर्भिक्ष पड़ने पर बड़े बड़े मनुष्य केवल कोदव (कोदों) खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। और, स्वामी अपने निर्मानी सेवक पर जितने प्रसन्न रहते हैं, उतनी प्रसन्नता उन्हें मानी सेवक के प्रति नहीं होती। इसलिए, वही सेवक सच्चा है, जो अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार कार्य करता रहे।”

फिर शुकमुनि ने पूछा कि, “जिसे विवेक और समझ न हो, वह अपने स्वामी को कैसे प्रसन्न कर सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “ये मूलजी ब्रह्मचारी तथा यह रतनजी अधिक बुद्धिशाली कहाँ हैं? फिर भी, इन्हें आत्मकल्याण की अत्यधिक इच्छा है, अतः उन्हें वह करना ठीक तरह से आता है, जिससे भगवान प्रसन्न हो जाएँ। और, इस समय तो अयोध्यावासी स्त्री-पुरुष हमारी इच्छा के अनुसार जैसा आचरण करते हैं, उस प्रकार तो मेरी आज्ञा का पालन परमहंस, सांख्ययोगी तथा कर्मयोगी सत्संगी भी नहीं कर पाते। क्योंकि अयोध्यावासियों ने अपने जीवन को अतिशय सत्संगपरायण बना लिया है। वस्तुतः भगवान को प्रसन्न करने की जितनी क्षमता अयोध्यावासियों में है, वैसी कुशलता और किसी में नहीं दिखाई पड़ती। ये अयोध्यावासी तो बहुत विश्वासु हैं। अतः कोई भी पुरुष उन्हें ठग सकता है। इसलिए, यदि इन्हें कोई कार्य आरम्भ करना हो, तो उन्हें अग्रगण्य परमहंसों तथा सत्संगी गृहस्थों से पूछकर ही करने देना चाहिए, किन्तु किसी एक पुरुष के कथनानुसार ही वह कार्य उन्हें नहीं करने देना चाहिए। इस प्रकार त्यागी तथा गृहस्थ सत्संगीजन अयोध्यावासियों की देखरेख रखें, यह हमारी आज्ञा है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ २२३ ॥

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