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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य ३
दया एवं स्नेह
संवत् १८८३ में आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा (२० जुलाई, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर विराजमान थे। उस दिन ठक्कर हरजी (गढ़पुर के खोजा हरिभक्त) के घर पर श्रीजीमहाराज ने पधरावनी की। फिर पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया रखवाकर श्रीजीमहाराज को विराजमान किया। फिर हरजी ठक्कर ने उनकी केसर-चन्दनादि से पूजा की। इस तरह श्रीजीमहाराज पूर्वाभिमुख होकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके कंठ में मोगरा-पुष्पों का हार तथा दोनों भुजाओं में मोगरे के फूलों के गजरे और पाग में पुष्पों के तुर्रे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। श्रीजीमहाराज के समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त सन्त मंडल से पूछा कि, “जिस हरिभक्त के हृदय में दया और स्नेह दोनों गुण स्वाभाविक रूप से रहे हैं। इनमें से स्नेह का स्वरूप शहद जैसा होता है और ऐसा भक्त तो जहाँ-तहाँ चिपक जाता है! और दया का स्वभाव ऐसा है कि दयालु भक्त जहाँ-तहाँ दया करता रहता है। जैसे भरतजी ने मृगी पर दया की, तो मृगी के उदर से जन्म लेना पड़ा। अतः दयालु भक्त जिस पर दया करे, उससे उसका स्नेह बंध ही जाता है। अतः उस दया और स्नेह को टालने का उपाय तो आत्मज्ञान तथा वैराग्य हैं। उन दोनों में आत्मज्ञान तो ऐसा है कि जिसमें किसी मायिक पदार्थ का प्रवेश ही नहीं होता। और वैराग्य का स्वरूप ऐसा है कि वह नामरूपवाले समस्त पदार्थों को नाशवंत बताता है। इस प्रकार आत्मज्ञान और वैराग्य द्वारा दया एवं स्नेह का नाश हो जाता है तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों प्रकार के देहभावों का भी नाश हो जाता है तथा जीव केवल ब्रह्मसत्तामात्र रहता है। इसके पश्चात् उसे भगवान एवं भगवद्भक्तों के सम्बंध में दया और स्नेहभाव रहता है या नहीं?”
इस प्रश्न को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी, शुकमुनि तथा नित्यानन्द स्वामी आदि परमहंसों ने अपने विचार के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का यथार्थरूप से समाधान नहीं हुआ।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “चलें, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं। ज्ञान और वैराग्य द्वारा तीन शरीर, तीन अवस्थाएँ और तीन गुण जैसी मायिक उपाधियों से चैतन्य अलग हो जाता है और वह केवल सत्तामात्र रहता है। किन्तु मायिक उपाधि लेशमात्र भी नहीं रहती। यहाँ एक दृष्टांत देते हैं, उसे सुनिए। जैसे दीपक की अग्नि मिट्टी का दिया, तेल और बत्ती के संयोग से दिखायी पड़ती है तथा तीनों (मिट्टी का दिया, तेल और बत्ती) के संयोग से ही उस अग्नि को ग्रहण किया जा सकता है। परन्तु जब इन तीनों का संग छूट गया, तब वह अग्नि न तो किसी को दृष्टिगोचर होगी और न तो उसे ग्रहण किया जाएगा! वह अग्नि उन तीनों के संयोग के होने से दिखायी पड़ती है और ग्रहण की जा सकती है।
“उसी प्रकार ज्ञान तथा वैराग्य द्वारा जब समस्त मायिकभाव छूट जाते हैं, तब यह जीवात्मा केवल ब्रह्मसत्तामात्र रहती है। वह मन एवं वाणी से अगोचर रहती है तथा किसी भी इन्द्रिय से उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस समय उसे यदि शुद्ध सम्प्रदाय द्वारा भगवान का ज्ञान प्राप्त हुआ हो और भगवान एवं भगवान के भक्त का माहात्म्य यथार्थ रूप से समझ में आया हो, उसके समस्त मायिकभावों का संग मिट जाता है और अपनी जीवात्मा ब्रह्मरूप हो जाती है, तो भी उसके हृदय में भगवान तथा भगवद्भक्त के प्रति दया और प्रीति निरन्तर बनी रहती है। यहाँ एक दृष्टान्त है कि जब दीपक की ज्योति को पूर्वोक्त तीनों चीज़ों का संग मिट जाता है, और वह किसी भी इन्द्रिय द्वारा उसे न ग्रहण किया जाए, इस तरह वह अग्नि आकाश में ही रहती है; फिर भी उस अग्नि में सुगन्ध तथा दुर्गन्ध का संग लग गया है, वह नहीं टलता। जैसे वायु अग्नि से भी अधिक असंगी होती है, तो भी वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध की संगत लग जाती है, वैसे ही जीवात्मा को ज्ञान-वैराग्य द्वारा मायिकभाव का संग मिट जाने पर भी सत्संग का प्रभाव नहीं मिटता! यद्यपि वह ब्रह्मरूप होता है फिर भी वह नारद-सनकादिक और शुकजी की तरह भगवान तथा भगवद्भक्त के प्रति अतिशय दया और प्रीतियुक्त रहता है। यहाँ यह श्लोक है:
‘परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ॥’२७६ ‘हरेर्गुणाक्षिप्तमतिर्भगवान् बादरायणिः।
अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः॥’२७७
“तथा ‘आत्मारामाश्च मुनयो,’२७८ तथा ‘प्रायेण मुनयो राजन्’२७९ एवं गीता में भी कहा गया है:
‘ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥’२८०
“इत्यादि अनेक श्लोकों द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि भगवान के जो भक्त ज्ञान-वैराग्य द्वारा मायिकभावों का त्याग करके ब्रह्मरूप हो गए हों, फिर भी भगवान तथा भगवद्भक्तों के प्रति दया और प्रीति से युक्त रहते हैं।
“परन्तु जो भगवान का भक्त ही नहीं होता, जिसने केवल आत्मज्ञान तथा वैराग्य द्वारा मायिकभावों को ही नष्ट करके सत्तामात्र रहता हो, उसे साधनादशा में ही भगवान की उपासना से रहित केवल आत्मज्ञानी के कुसंग का पुट चढ़ गया है; इसलिए, उसे भगवान और भगवद्भक्त के प्रति दया एवं स्नेह का भाव नहीं होता। जिस प्रकार वायु और अग्नि को दुर्गन्ध का असर लग जाता है, उसी प्रकार उसे भी कुसंग का पुट चढ़ गया है, जो किसी भी तरह से नहीं मिट पाता। जैसे अश्वत्थामा ब्रह्मरूप हुआ था, (कथन मात्र ब्रह्मरूप, वास्तव में नहीं।) फिर भी उसे कुसंग का पुट लग चुका था, तो उसके हृदय में श्रीकृष्ण भगवान तथा उनके भक्त पांडवों के प्रति दया और स्नेह का भाव नहीं हुआ। उस प्रकार जो केवल आत्मज्ञानी है, वह यद्यपि ब्रह्मरूप हो जाता है, फिर भी उसके हृदय से कुसंग का प्रभाव नहीं मिट पाता और भगवान तथा उनके भक्तों के प्रति दया और स्नेह भाव उत्पन्न नहीं होता। इसलिए भगवान के भक्त के हृदय में तो मायिक भावों का संग मिट जाने पर भी भगवान तथा भगवद्भक्त के प्रति अत्यंत दया और प्रेम की वृद्धि होती ही रहती है। किसी भी तरह दया तथा प्रीति का भाव मिट नहीं पाता। वह अखंड बना रहता है।”
इस प्रकार वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवासस्थान में पधारे।
॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ २२६ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२७६. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत पंचाला २ की पादटीप।
२७७. अर्थ: “भगवद्गुणों से आकृष्ट होकर मुनिवर्य शुकमुनि ने विष्णुजनों को प्रिय भागवत रूप महद् आख्यान की शिक्षा ली।”(श्रीमद्भागवत: १/७/११)
२७८. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत पंचाला २ की पादटीप।
२७९. अर्थ: “निर्गुणभाव को प्राप्त होने पर भी महान मुनिवर्य भगवान के चरित्रों का गान करते हैं।” (श्रीमद्भागवत: २/१/७)
२८०. अर्थ के लिए देखें: लोया ७ की पादटीप।