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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ४

बाधितानुवृत्ति

संवत् १८८३ में श्रावण शुक्ला तृतीया (६ अगस्त, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर ऊपर के कमरे के बरामदे में गद्दी-तकिया रखवाकर उत्तराभिमुख विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “ज्ञान-वैराग्ययुक्त जिस भक्त ने अपने सूक्ष्म विचारों के बल से स्वयं को बन्धन करनेवाली मायिक वस्तुओं से आसक्ति को नष्ट कर दिया हो, फिर भी उसको तब तक बाधितानुवृत्ति रह जाती है, जब तक उसे निर्विकल्प समाधि नहीं लगी। इसके कारण उसके मन में ऐसे विचार रहा करते हैं कि कदाचित् मुझे अपने माता-पिता, पत्नी, पुत्रों, द्रव्य, कुटुम्ब, शरीर तथा घर आदि में कदाचित् मोह तो नहीं रह गया! ऐसा भय उसके मन में समाया रहता है।

“जैसे कोई शूरवीर ने अपने समस्त शत्रुओं को मार डाला हो तो भी वह अपने मृत शत्रुओं के भय से कभी-कभी भयाक्रान्त हो जाया करता है, और स्वप्न में उन शत्रुओं को देखकर भयभीत हो जाता है। उसी प्रकार जिस ज्ञानी भक्त ने जिन-जिन वस्तुओं को अपने मन से ठुकरा दिया हो, और उनके प्रति अपने मोह को तोड़ दिया हो, तो भी उसे बाधितानुवृत्ति रहने के कारण हृदय में मायिक वस्तुओं के बन्धन से डर लगने लगता है, अथवा धन-कलत्रादि की किसी समय याद आ जाती है। तब मन में भय प्रगट हो जाता है कि, ‘कदाचित् मुझे उन बन्धनकारी वस्तुओं की, जिनका मैंने हृदय से त्याग कर दिया है, स्मृति हो जाएगी तो!’ इस प्रकार की भावना को बाधितानुवृत्ति कहा जाता है और वह वृत्ति निर्विकल्प समाधि के लगने पर ही नष्ट होती है। निर्विकल्प समाधि की स्थिति में उस पुरुष को खाने-पीने की, दिन-रात की और सुख-दुःख की कुछ खबर नहीं रहती। जब वह निर्विकल्प समाधि से बाहर निकलता है, तब सविकल्प समाधि की स्थिति में रहने पर उसे बाधितानुवृत्ति अवश्य रहती है। इसलिए वह हरिभक्त ज्वरग्रस्त हो, अथवा उसकी देह छूटने का समय आ जाए, तब बाधितानुवृत्ति के योग से भगवान को छोड़कर उसे अन्य वस्तुओं की भी स्मृति होने लगती है। उस समय जो बड़बड़ाहट-सा होता है, तथा सन्निपात-सा होता है, तब ‘अरे बाप रे! ओ माँ,’ जैसे शब्द भी मुँह से निकल आते हैं।

“उस समय जो पुरुष बाधितानुवृत्ति के मर्म को नहीं समझता है, उसके मन में उस हरिभक्त का अवगुण आ जाएगा कि, ‘यह तो भगवान का भक्त कहलाता था, और अन्तकाल में इस प्रकार प्रलाप क्यों करता है?’ इस प्रकार का अवगुण बाधितानुवृत्ति का मर्म जाने बिना ही देखा जाता है। और, इस संसार में ऐसे कितने ही पापी मनुष्य हैं, जो अन्त समय में बोलते-चलते और सावधानीपूर्वक देह त्याग करते हैं अथवा कोई सिपाही या राजपूत हो और उसे शरीर में घाव लगें हों, तो भी वह सतर्क रहते हुए बोलते-चलते मर जाते हैं। परन्तु भगवान से जो विमुख है, वह यदि सतर्क होकर भी देहत्याग करता है, तो क्या उसका कल्याण होता है? नहीं, उसका तो नरक में ही निवास होता है। परन्तु यदि भगवान का भक्त हो, और वह यदि परमेश्वर का नामस्मरण करता हुआ देह त्याग करता है अथवा बाधितानुवृत्ति के योग से बेहोश होकर प्राणोत्सर्ग करता है, परन्तु भगवान का वह भक्त भगवान के चरणारविन्दों को ही प्राप्त होता है।”

फिर उसी दिन सन्ध्या के समय श्रीजीमहाराज अपने निवासस्थान की पहली मंजिल पर कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके सम्मुख साधु तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

इस अवसर पर श्रीजीमहाराज ने बड़े-बड़े परमहंसों से प्रश्न पूछा कि, “इस देह में जो जीव है, वह एक ही स्थान में किस प्रकार रहता है और समस्त शरीर में किस तरह व्यापक होकर रहता है? यह बताइए।”

तत्पश्चात् जिसको जैसा लगा, उसने वैसा ही उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का निराकरण कोई भी न कर सका।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस प्रकार देह में अन्नादि रसों का विकार वीर्य है, उसी तरह पंचमहाभूतों के विकाररूप हृदय में एक मांसचक्र रहता है, उसी चक्र में जीव का निवास है। जिस प्रकार चिथड़े के पलीते को तेल में भिगोकर आग से जलाया जाए, उसी तरह यह जीव भी मांस के चक्र के साथ मिलकर रहता है। जिस तरह लोहे की कील में अग्नि व्याप्त हुई हो, वैसे ही मांसचक्र में यह जीव भी विशेष सत्ता से व्याप्त होकर रहता है और सामान्य सत्ता से सारे शरीर में व्याप्त हो रहा है। इसलिए देह में चाहे कहीं भी पीड़ा होती है, वह समस्त दुःख जीव को ही होता है। परन्तु शरीर के सुख-दुःख से यह जीव भिन्न नहीं रहता। कोई ऐसा पूछेगा कि, ‘जीव तो प्रकाशमान है, जबकि मांसचक्र तथा देह तो प्रकाशरहित है, उन दोनों को एक दूसरे से मिला हुआ कैसे कहा जाए?’

“तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार तेल, दीपक और बत्ती के साथ सम्बंध रखे बिना अकेली आधारहीन अग्नि की ज्योति आकाश में नहीं रहती, उसी तरह पंचभूतों के विकाररूप मांसचक्र से जुड़े बिना जीव अकेला नहीं रह पाता। और, अग्नि जिस प्रकार दीपक, तेल और बत्ती से भिन्न है तथा दीपक के टूट जाने पर उस अग्नि का नाश नहीं होता, उसी तरह मांसचक्र एवं देह में जीव के व्याप्त रहने पर भी देह के प्राणहीन होने पर जीव का नाश नहीं होता। वह देह के साथ सुख-दुःख को तो अवश्य भोगता है, किन्तु देह के सदृश जीव का नाशवान स्वभाव नहीं है। इस प्रकार जीव अविनाशी तथा प्रकाशरूप है, तथा देह में व्याप्त है।

“और जैसे, मन्दिर में एक स्थान पर रखे हुए दीपक की ज्योति विशेषरूप से बत्ती में व्याप्त होकर रहती है और सामान्यतः सारे घर में व्याप्त हो रही है, उसी तरह जीवात्मा भी पंचमहाभूतों के विकाररूप मांसचक्र में विशेषरूप से व्याप्त हो रही है, और सामान्य रूप से सारे शरीर में व्याप्त हो रही है। इस तरह जीव इस देह में रहता है तथा उस जीव में परमेश्वर भी साक्षीरूप होकर रहते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ २२७ ॥

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