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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ५

माहात्म्ययुक्त भक्ति

संवत् १८८३ में भाद्रपद शुक्ला एकादशी (१२ सितम्बर, १८२६) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में गद्दी-तकिया पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। कंठ में मोगरा पुष्पों के हार पहने हुए थे। उनकी पाग में मोगरा फूलों के तुर्रे और हाथों में मोगरा पुष्पों के गजरे सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कोई प्रश्न पूछिए।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! भगवान की ऐसी कौन-सी भक्ति है, जिसमें किसी भी प्रकार का विघ्न न हो, तथा वह किस तरह की भक्ति है कि जिस भक्ति में कोई विघ्न पड़ता है?”

प्रश्न सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध में कपिल गीता में माता देवहूति ने कपिलजी के प्रति कहा है:

‘यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्यत्प्रह्‌वणाद्यत्स्मरणादपि क्वचित्।
श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते कथं पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्‌वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥’२८१

“इन दो श्लोकों में भगवान का माहात्म्य कहा गया है। इसके उपरांत कपिलजी ने माता देवहूति के प्रति अपनी महिमा बताई है:

‘मद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात्।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥’२८२

“इस प्रकार यदि माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति की जाए, तो उसमें किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता, किन्तु माहात्म्य जाने बिना केवल प्राकृत बुद्धि से जो भक्ति की जाए, तो निश्चितरूप से विघ्न आता है।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “इस प्रकार माहात्म्ययुक्त भक्तिभाव सम्पन्न करने का क्या साधन है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “शुक-सनकादि जैसे महापुरुष की सेवा तथा उन्हीं के प्रसंग (अतिशय स्नेहभाव से जुड़ने) से जीव में माहात्म्य सहित भक्ति का उदय होता है।”

इसके बाद शुकमुनि ने पूछा कि, “भगवान के भक्त दो प्रकार के हैं। इनमें एक तो वह है, जिसको दृढ़रूप से भगवान का परिपक्व निश्चय है, तथा काम, क्रोध, लोभ और मोहादि विकारों में से कोई भी विकार उसके हृदय में विक्षेप नहीं करता। परन्तु दूसरा जो भक्त है, जिसे दृढ़तापूर्वक भगवान का परिपक्व निश्चय तो है ही, परन्तु उसका अन्तकरण काम, क्रोध, लोभ तथा मोहादि विकारों से क्षुब्ध हो जाता है। इन दोनों प्रकार के भक्त जब देह छोड़कर भगवान के धाम में जाते हैं, तब क्या उन दोनों को समान सुख की प्राप्ति होती है या दोनों के सुख में अधिकता अथवा न्यूनता रहती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस भगवद्भक्त को भगवान का परिपूर्ण निश्चय होता है, तथा काम-क्रोध एवं लोभादि से वह क्षुब्ध भी नहीं होता, तथा अतिशय त्यागी, अति वैराग्यवान एवं अत्यंत आत्मनिष्ठावाला हो, फिर भी यदि वह प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति के बिना किसी अन्य पदार्थों की इच्छा करता हो, उसे न्यून सुख की ही प्राप्ति होती है।

“जबकि दूसरा जो भक्त है, जिसके हृदय में भगवान का परिपूर्ण निश्चय तो है, परन्तु उसका अन्तःकरण काम, क्रोध, लोभ एवं मोहादि के कारण विक्षेप उत्पन्न हों, तब अपने हृदय में उसे परिताप होता है, तथा वह भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष मूर्ति के सिवा किसी भी अन्य पदार्थों की इच्छा नहीं रखता, उसे भले ही न्यून आत्मनिष्ठा हो एवं कम वैराग्य हो, परंतु वह देह-त्याग करके भगवान के धाम में उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करता है। इसका कारण यह है कि प्रथम प्रकार का भक्त बाह्यरूप से भले ही त्यागी और निष्कामी दिखाई पड़ता हो, परन्तु भगवान के दर्शन के उपरान्त उसे आत्मदर्शनादि की इच्छा रहती है, अतः वह सकाम भक्त कहलाता है और उसे परलोक में निश्चित रूप से न्यून सुख प्राप्त होता है, जबकि दूसरा जो भक्त है, वह बाहरी तौर पर सकाम दीखता है, परन्तु उसके हृदय में भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य किसी पदार्थ की आशा-आकांक्षा नहीं रहती! और कदाचित् उससे भगवान के बिना दूसरे सुख की इच्छा का संकल्प हो जाए तो उसके मन में अत्यंत पश्चात्ताप होता है। अतः उसे निष्काम भक्त कहा जाता है तथा शरीर छूटने पर वह अधिकाधिक सुख को प्राप्त करता है एवं भगवान का पार्षद होता है एवं श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति में उसे अतिशय प्रीति हो जाती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ २२८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२८१. अर्थ: “हे भगवन्! कभी भी आपके नामों का श्रवण-कीर्तन करने, आपको प्रणाम करने तथा आपका स्मरण करने से यदि श्वपच तुरन्त यज्ञ करने में समर्थ और पवित्र हो जाता है, तो कोई प्राणी यदि आपके दर्शनमात्र से पवित्र और कृतार्थ हो जाए तो इसके सम्बंध में क्या कहना है! यह एक आश्चर्य की बात है कि श्वपच की जिह्वा पर भी आपका नाम बना रहता है और वह भी आपके नामोच्चार से भक्तिरहित कर्मठ ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ हो जाता है; तो जिन्होंने भगवान के नाम का उच्चार किया है, उन्हीं ने तप किया है, होम किया है, तीर्थ में स्नान भी उन्होंने ही किया है। तथा वे ही सदाचरणवाले हैं और वेदों का अध्ययन भी उन्होंने किया है।” (श्रीमद्भागवत: ३/३३/६-७)

२८२. अर्थ: “समस्त जगत को सुख देनेवाली यह वायु मेरे भय से चलती रहती है, मेरे भय से ही सूर्य प्रकाश प्रदान करता रहता है, इन्द्र वर्षा करता रहता है, अग्नि वस्तुओं का दहन करती है तथा मृत्यु प्राणियों में विचरण करती रहती है।” (श्रीमद्भागवत: ३/२५/४२)

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