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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ६

जीव तथा मन की मैत्री

संवत् १८८३ में भाद्रपद कृष्णा पंचमी (२१ सितम्बर, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय समस्त हरिभक्तों पर कृपादृष्टि करके श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान का कोई भक्त किसी हरिभक्त के प्रति ईर्ष्याभाव रखकर परमेश्वर की कथा, कीर्तन तथा श्रवणादि नवधा भक्ति करता है, तो भगवान उस पर अधिक प्रसन्न नहीं होते और ईर्ष्या का त्याग करके जो केवल अपने कल्याण के लिए भक्ति करता है बल्कि किसी को दिखाने के लिए नहीं करता, तो वैसी भक्ति से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।

“अतः जिनको भगवान को प्रसन्न करने की इच्छा हो, उनको लोगों को रिझाने के लिए या किसी से ईर्ष्याभाव रखकर भक्ति नहीं करनी चाहिए, परंतु केवल आत्मकल्याण के लिए ही भक्ति करनी चाहिए।

“और, यदि भगवान की भक्ति करते समय अपने से कोई अपराध हो जाए, तो वह दोष दूसरे के सिर पर नहीं मढ़ना चाहिए। वस्तुतः जीवमात्र का ऐसा ही स्वभाव है कि वह यदि कुछ अपराध के दायरे आ गया, तो वह बोल पड़ता है कि, ‘मुझे किसी अन्य मनुष्य ने गुमराह किया है, इसी कारण मुझसे यह भूल हो गई, अन्यथा मुझमें कोई दोष नहीं है।’ परन्तु ऐसा कहनेवाला महामूर्ख है, क्योंकि कोई कहेगा कि, ‘तू कुएँ में गिर पड़,’ तो क्या उसके कहने से उसे कुएँ में गिर जाना चाहिए? इसलिए, दोष तो उस मनुष्य का ही है, जो उल्टा काम करता है, और दोष किसी और के सिर मढ़ता है!

“इसी प्रकार, केवल इन्द्रियों और अन्तःकरण दूषित है, ऐसा करना भी जीव की मूर्खता ही है। क्योंकि जीव तथा मन एक-दूसरे के घनिष्ठ मित्र हैं। जिस प्रकार दूध और पानी की मित्रता रहती है, उसी तरह जीव तथा मन की मैत्री बनी रहती है। सो जब दूध और पानी को मिलाकर अग्नि पर रखा जाता है, तब पानी दूध के नीचे बैठ जाता है, और स्वयं जल जाता है, किन्तु दूध को नहीं जलने देता। इसी तरह दूध भी पानी को बचाने के लिए स्वयं उफ़नकर आग को बुझा डालता है। ऐसा दोनों का पारस्परिक मित्रभाव है! ठीक उसी प्रकार जीव तथा मन की परस्पर मैत्री है, जो बात जीव को रुचिकर न हो, उसका तो मन में संकल्प भी नहीं हो पाता। परन्तु जब कोई बात जीव को पसन्द हो, तभी मन जीव को समझाता है। वह कैसे समझाता है? तो जब जीव भगवान का ध्यान करता है, तब मन यह कहेगा कि यदि भगवान की कोई स्त्री भक्त हो तो साथ में उसका भी ध्यान करना। इसके बाद वह उसके समस्त अंगों का चिन्तन कराकर उसमें भी दूसरी स्त्री के प्रति जैसे कुविचार उत्पन्न होते हैं, वैसे ही उस भक्त-स्त्री में भी कुविचार उत्पन्न करा देता है। उस समय यदि उस भक्त का जीव अति निर्मल हो, तो वह उसका कहना नहीं मानता और अत्यंत पश्चात्ताप करता है, ताकि मन पुनः कभी भी ऐसा संकल्प न कर सके।

“परन्तु उसका जीव यदि मलिन और पापयुक्त हो, तो वह मन का कहना मान लेता है। तब मन उसे अशुभ संकल्प उत्पन्न कराकर उसका कल्याण-मार्ग से पतन करा देता है। इसलिए, यदि मन अथवा कोई अन्य मनुष्य कल्याण-मार्ग से विपरीत अधर्म की बात करता है, तो उसके साथ शुद्ध मुमुक्षु को अत्यंत वैरभाव ही हो जाता है। तब जाकर अपना मन अथवा अन्य मनुष्य पुनः ऐसी उल्टी बात करने का साहस नहीं करता।

“और, मन तो जीव का मित्र ही है, इसलिए वह जीव के लिए अप्रिय लगनेवाला संकल्प कभी नहीं करता। अतः मन में यदि अनुचित संकल्प हो जाए, तब जीव यदि उस पर अत्यंत कुपित हुआ, तो वह मन को ऐसे संकल्प करने ही नहीं देता! परन्तु यदि मन में सदैव अनुचित संकल्प होते रहते हों, तब समझना कि इसमें अपने जीव का दोष है। किन्तु अकेले मन की ही त्रुटि नहीं है। ऐसा समझकर यदि कोई भगवान की भक्ति करता रहता है, तो किसी विमुख जीव तथा अपने मन का कुसंग उसे लेशमात्र भी स्पर्श नहीं कर सकता, तथा वह निर्विघ्नरूप से भगवान का भजन करता रहता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ २२९ ॥

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