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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २३

ब्रह्म-स्थिति को पाना; पानी का घड़ा ढालने के बजाए उंगली सी जलधारा बहाए रखना

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला पंचमी (२१ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। श्रीजीमहाराज ने सिर पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था तथा श्वेत अंगरखा पहना था। वे सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे। उन्होंने कटि पर कुसुंभी रंग का शेला कसकर बाँध रखा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज करुणा करके परमहंसों के सामने कहने लगे कि, “वासुदेवमाहात्म्य नामक ग्रन्थ हमें अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि इस ग्रन्थ में भगवद्भक्तों के लिए भगवान का भजन करने की विधि बताई गई है। और भगवान के भक्त दो प्रकार के हैं। इनमें से एक प्रकार का वह भक्त है, जिसका भगवान सम्बंधी निश्चय तो यथार्थ है, परन्तु वह देहात्मबुद्धि सहित भगवान का भजन करता है। दूसरा भक्त तो अपना स्वरूप जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों देहों से परे चैतन्य-रूप समझता है और अपने स्वरूप में भगवान की मूर्ति को धारण करके भगवद्भजन करता है; फिर तीनों अवस्थाओं और शरीरों से परे अपने स्वरूप को अतिशय प्रकाशमान देखता है और उसी प्रकाश में उसे प्रकट प्रमाण भगवान की मूर्ति अतिशय देदीप्यमान दिखायी पड़ती है। ऐसी स्थिति उसे प्राप्त हो जाती है। और जब तक ऐसी स्थिति नहीं हुई, तब तक भगवान के भक्त होते हुए भी उसके सिर पर विघ्न मँडराता रहता है।

“और ऐसी स्थिति में शिवजी नहीं रह पाए तो मोहिनी स्वरूप को देखकर मोहित हो गए थे और ब्रह्माजी ऐसी स्थिति में नहीं रह पाए, तो वे सरस्वती पर मुग्ध हुए थे। नारदजी भी इस स्थिति के अभाव के कारण विवाह करने के लिए लालायित हो उठे थे, तथा इन्द्र एवं चन्द्रादि को भी ऐसी स्थिति नहीं रहने के कारण कलंकित होना पड़ा। अतः भगवान का भक्त होने पर भी यदि इस स्थिति तक नहीं पहुंच पाया, तो भगवान के स्वरूप को भी वह मनुष्यभाव से देखने लगता है।

“जैसे राजा परीक्षित ऐसे भक्त नहीं थे, तो उन्हें भगवान की रास-क्रीड़ा की बात सुनकर श्रीकृष्ण भगवान पर संशय उत्पन्न हो गया। शुकदेवजी ऐसे भक्त थे, तो उनके मन में भगवान के प्रति किसी भी प्रकार का संदेह नहीं हुआ। अतः जो ऐसा भक्त होता है, वह तो यह समझता है कि, ‘यदि मुझे भी कोई दोष छू नहीं सकता, और मेरे मार्ग में बाधक नहीं बन सकता, तब मैं जिनके भजन से ऐसा हुआ हूँ, उन भगवान में तो कोई मायिक दोष संभव ही कैसे होगा?’ ऐसा दृढ़रूप से समझता है।

“और ऐसा जो भगवद्भक्त है, वह भगवान की मूर्ति में जब अपनी मनोवृत्ति रखता है, तब उस वृत्ति के दो भाग हो जाते हैं। इनमें से एक वृत्ति तो भगवान के स्वरूप में रहती है तथा दूसरी वृत्ति भजन करनेवाले में (आत्मा में) बनी रहती है। भगवान के स्वरूप में रहनेवाली वृत्ति प्रेममय वृत्ति रहती है, तथा भजन करनेवाले आत्मा में जो वृत्ति रहती है, वह विचारयुक्त हुआ करती है। और यह वृत्ति भजन के सिवा जो भी अन्य संकल्प-विकल्प होते हैं, उन सभी को मिथ्या कर डालती है तथा भजन करनेवाले के दोषों को मिथ्या कर डालती है। इस प्रकार उसकी वृत्ति भगवान में निरंतर रहा करती है। और जो जीव कभी तो एकाग्रचित्त होकर भगवान का भजन करता है, और कभी अन्य क्रियाओं में वृत्तियों को भटकाता फिरता है, उसे तो ऐसी स्थिति प्राप्त नहीं होती।

“जैसे पानी का घड़ा एक जगह खाली कर दिया जाए और दूसरे या तीसरे दिन भी उसी स्थान पर पानी डाला जाए, तो क्या वहाँ जल से भरी हुई झील बन जाएगी? नहीं, क्योंकि प्रथम दिन का पानी दूसरे दिन तक और दूसरे दिन का पानी तीसरे दिन तक सूख जाएगा। परन्तु यदि उँगली - जैसी छोटी-सी पानी की पतली धारा भी निरंतर बहती हो तो वहाँ धीरे-धीरे बड़ी-सी झील भर जाती है! उसी तरह खाते-पीते, चलते-फिरते तथा शुभ-अशुभ क्रिया में सदैव भगवान के प्रति निरंतर वृत्ति रखना, तभी ऐसी दृढ़ स्थिति हो जाती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २३ ॥

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