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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ७

वज्र की कील

संवत् १८८३ में भाद्रपद कृष्णा षष्ठी (२२ सितम्बर, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान पर गद्दी-तकिये पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे और कंठ में मोगरा के पुष्पों का हार पहना था। उनकी पाग में मोगरा के फूलों के तुर्रे लगे हुए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज समस्त हरिभक्तों के प्रति बोले कि, “हमारे अन्तःकरण का जो सिद्धान्त है, उसे बताते हैं कि जो भक्त अपने कल्याण का इच्छुक हो, उसके लिए भगवान और उनके साधु के सिवा जगत में दूसरा कुछ भी सुखदायी नहीं है। जिस प्रकार जीव को अपने शरीर के प्रति आत्मबुद्धि रहती है, वैसी आत्मबुद्धि भगवान तथा उनके सन्त के प्रति रखनी चाहिए और भगवान के भक्त का पक्ष सुदृढ़ करके रखना चाहिए। भगवान के भक्त के पक्षधर होते हुए यदि हमारी प्रतिष्ठा बढ़ जाए, या फिर कम हो जाए, कदाचित् हमारा सम्मान हो या अपमान हो, हमारा शरीर कदाचित् रहे या न रहे, किन्तु किसी भी प्रकार से भगवान और भगवान के भक्त का पक्ष नहीं छोड़ना चाहिए तथा उनके प्रति दुर्भाव नहीं आने देना चाहिए। और, भगवान के भक्त में जैसी प्रीति है, उससे अधिक प्रीति देह और देह के सम्बंधी जनों के साथ नहीं रखनी चाहिए।

“जो हरिभक्त इस प्रकार आचरण करता है, उसको अति बलवान काम-क्रोधादि शत्रु भी पराजित नहीं कर सकते। और, भगवान के ब्रह्मपुर धाम में भगवान सदैव साकार-मूर्तिमान विराजमान हैं तथा भगवान के भक्त भी वहाँ मूर्तिमान रूप से परमेश्वर की सेवा में जुटे रहते हैं। जिसे उन भगवान का प्रत्यक्ष प्रमाण दृढ़ आश्रय हो गया, उसे अपने मन में ऐसा भय नहीं रखना चाहिए कि, ‘मैं कदाचित् अपनी मृत्यु के बाद भूत-प्रेत तो नहीं होऊँगा? या मुझे इन्द्रलोक अथवा ब्रह्मलोक की प्राप्ति तो नहीं होगी?’ ऐसी शंका मन में नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि भगवान का जो ऐसा भक्त हो, वह भगवान के धाम में ही जाता है और भगवान ही उसे बीच में कहीं भी नहीं रहने देंगे। उस भक्त को अपना मन भगवान के चरणारविन्दों में ही सुदृढ़ करके रखना चाहिए। जैसे वज्र की पृथ्वी में लगी वज्र की कील किसी भी तरह नहीं उखड़ पाती, उसी प्रकार भगवान के चरणकमलों में अपने मन को दृढ़तापूर्वक लगाये रखना चाहिए। जो इस प्रकार भगवान के चरणकमलों में अपना मन दृढ़तापूर्वक लगाए रखता है, वह मरकर ही भगवान के धाम में जाएगा, ऐसी बात नहीं है। वस्तुतः वह तो जीवित अवस्था में ही भगवान के धाम को प्राप्त कर चुका है।”

ऐसी वार्ता करके श्रीजीमहाराज ने ‘जय सच्चिदानंद’ कहकर सभा को विसर्जित करने की आज्ञा दी।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ २३० ॥

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