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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ८

सदैव सुखी रहने के उपाय

संवत् १८८३ में भाद्रपद कृष्णा नवमी (२५ सितम्बर, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके कंठ में मोगरा-पुष्पों का हार और पाग में मोगरा-फूलों के तुर्रे सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने मुनिमंडल से प्रश्न किया कि, “ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे भगवान का भक्त सदैव सुखी रह सकता है।”

बड़े-बड़े साधुजनों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया।

बाद में श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर इस प्रकार है कि भगवान के भक्त को एक तो दृढ़ वैराग्य हो, और दूसरा अतिशय दृढ़ स्वधर्म हो, तथा इन दोनों साधनों द्वारा समस्त इन्द्रियों को जीत कर अपने वश में कर लिया हो; और, जिसे भगवान और उनके भक्त के प्रति अतिशय प्रीति हो; और, जिसे भगवान एवं भगवद्भक्त के प्रति अत्यंत मित्र भाव हो; और जो कभी भी भगवान और उनके भक्त से उदासीन नहीं रहता हो एवं जो परमेश्वर और उनके भक्त के संग में ही रहना पसन्द करता हो, परंतु किसी भी विमुख जीव का संग उसे अच्छा न लगता हो, ऐसे लक्षण जिस हरिभक्त में हों, वह इस लोक तथा परलोक में सदैव सुखी रहता है।

“जिसने वैराग्य तथा स्वधर्म द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वह भगवान और उनके भक्त के साथ रहता हुआ भी दुःखी ही रहता है। इसका कारण यह है कि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त न करनेवाले जीव को किसी भी जगह सुख नहीं होता। और, भगवान की भक्ति करने पर भी यदि इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों के प्रवाह में बह गईं तो उस भक्त के हृदय में अति दुःख होगा। अतः अपनी समस्त इन्द्रियों को जीतकर वश में करनेवाला ही हमेशा सुखी रहता है। जिसने सभी इन्द्रियों को इस प्रकार अपने वश में कर लिया है, उसी को ही वैराग्यवान और धर्मवान् समझना चाहिए। किन्तु, जिसको अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में न हुई हों, तो उसे वैराग्यवान एवं धर्मवान नहीं समझना चाहिए। और, जो वैराग्यवान और धर्मवान हो उसको तो सभी इन्द्रियाँ नियम में होती हैं। इसलिए वह सदैव सुखी रहता है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! भगवान के भक्त को भक्ति के मार्ग में कौन-सा सबसे बड़ा विघ्न बाधक बन जाता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान के भक्त को यही बड़ा विघ्न है कि वह अपने दोषों को नहीं देखता, और परमेश्वर तथा उनके भक्त से उसका मन उचट जाता है और भगवान के भक्तों के प्रति बेपरवाह होकर उनकी उपेक्षा करने लगता है। ये तीनों (दोष) भक्ति के मार्ग में सबसे बड़े विघ्न हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ २३१ ॥

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