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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ९

अंतःजागृति का द्वार

संवत् १८८३ में आश्विन शुक्ला एकादशी (११ अक्तूबर, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके कंठ में पुष्पहार तथा गजरे शोभायमान हो रहे थे। उनकी पाग पर पुष्पों के तुर्रे झुक रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने समस्त हरिभक्तों से कहा कि, “हम अपने बड़े बड़े परमहंसों की जैसी स्थिति है और जैसी समझ है, उसके सम्बंध में आप सभी पुरुषों-महिलाओं को बताते हैं। उसे सुनकर आप सभी जिस प्रकार आचरण रखते हो, तथा जैसी आपकी स्थिति है, उसे बताना।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज सभी हरिभक्तों के प्रति बोले कि, “हमारे मुनिमंडल में जो बड़े बड़े सन्त हैं, वे अपने हृदय पर अन्तःजागृति रूप भगवद्धाम के द्वार पर सदा-सदा के लिए सावधान होकर उपस्थित रहते हैं। जैसे राजा के चाकर महल के द्वार पर खड़े होकर चोरों आदि को राजा के पास नहीं जाने देते और वे इतना साहस रखते हैं कि, यदि कोई राजा के समक्ष विघ्न डालने के लिए आए, तो हम उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे! लेकिन उन्हें किसी भी तरह राजा के निकट पहुँचने नहीं देंगे। इस तरह वे ढाल-तलवार से लैस होकर उपस्थित रहते हैं।

“उसी प्रकार सभी सन्त अन्तःजागृति रूप जो भगवान के धाम का द्वार है, वहाँ पर उपस्थित रहते हैं तथा अन्तःजागृति के भीतर जो अक्षरधाम है, उसी में भगवान के दर्शन करते हैं और अन्तःप्रबुद्धता के द्वार से अपने हृदय में धन, स्त्री आदि मायिक तत्त्वों को भगवान के निकट घुसने नहीं देते। यदि कोई मायिक तत्त्व जबरन उन भक्तों के हृदय में पैठने आता भी है, तो वे उन सभी पदार्थों का नाश कर डालते हैं, परन्तु हृदय के जिस स्थान में भगवान को प्रतिष्ठित किया है, वहाँ तक उसे घुसने नहीं देते और शूरवीर की तरह सावधान रहते हुए खड़े रहते हैं और हानि, वृद्धि, सुख, दुःख तथा मान-अपमान आदि अनेक विघ्नों के उपस्थित होने पर भी अपने स्थान से विचलित नहीं होते। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि, ‘जब वे उस अन्तःजागृति के द्वार से तनिक भी हिलते-डुलते नहीं हैं, तब वे अपने देह की खान-पान आदि क्रिया को किस प्रकार करते होंगे?’

“तो इस पर दृष्टान्त देकर बताते हैं कि जब पनिहारी कुएँ पर जल लेने के लिए जाती है, तब वह पनघट पर रखे गए अपने पैरों तक का ध्यान रखती है कि कहीं कुएँ में फिसल न जाऊँ तथा अन्य वृत्ति द्वारा कुएँ से जल भी खींचती है।

“और दूसरा दृष्टांत: जैसे कोई पुरुष घोड़े पर सवार होता है, तब वह घोड़े के रकाब में रखे गए अपने पैरों पर भी ध्यान रखता है, घोड़े की लगाम पर तथा उसके दौड़ते समय मार्ग में आनेवाले वृक्षों, गड्ढ़ों और पत्थरों तक का भी ध्यान रखता है। वैसे ही ये सब सन्त अन्तर सम्मुख दृष्टि रखकर भगवान की सेवा में भी तत्पर रहते हैं और दैहिक क्रिया भी किया करते हैं, किन्तु वे अपनी स्थिति से विचलित नहीं होते।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने बड़े बड़े सन्तों की स्थिति दिखाई।

फिर बोले कि, “आप सबको इसी तरह अन्तर सम्मुख दृष्टि रखकर निरन्तर भगवान की सेवा में जुटे रहना है। और, भगवान के सिवा अन्य पदार्थों को प्रिय नहीं होने देना है, इस बात की अत्यंत सावधानी बरतें। और, जैसे राजा का सेवक अगर असावधान होकर राजा के पास रहता हो, तब कोई चोर आदि राजा के पास पहुँच गया, तो उस सेवक की चाकरी विफल हो जाती है। उसी तरह हरिभक्त को भी यदि भगवान के सिवा अन्य पदार्थों में आसक्ति हो गई, तो उसके हृदय में, जहाँ भगवान रहते हैं, वहाँ धन-स्त्री आदि अन्य तत्त्वों की पैठ हो जाए तो उसकी भक्ति मिथ्या हो जाती है। इसलिए, अपनी भक्ति को निर्विघ्न रखकर जो मुमुक्षु परमेश्वर के चरणारविदों को प्राप्त करने का इच्छुक हो, उसे तो अन्तःजागृति रूप भगवद्धाम के द्वार पर सावधान होकर उपस्थित रहना चाहिए। और, भगवान के सिवा अन्य पदार्थों को वहाँ पैठने नहीं देना चाहिए।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने समस्त भक्तजनों को शिक्षा-वचन कहे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ २३२ ॥

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