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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १०

पाँच अनादि तत्त्व

संवत् १८८३ में आश्विन कृष्णा द्वादशी (२८ अक्तूबर, १८२६) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष साधुवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के सत्संगी हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज के पास एक मध्व सम्प्रदाय का विद्वान ब्राह्मण आ पहुँचा। उससे श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “आपके सम्प्रदाय के ग्रन्थों में वृन्दावन को ही भगवान का धाम बताया गया है और यह भी कहा गया है कि महाप्रलय में भी वृन्दावन का नाश नहीं होता, जबकि शिवमार्गी ऐसा कहते हैं कि महाप्रलय में काशी का नाश नहीं होता।२८३ तो यह बात हमारी समझ में नहीं आती। क्योंकि महाप्रलय में पृथ्वी आदि समस्त पंचभूतों का बिलकुल प्रलय हो जाता है, तब वृन्दावन और काशी का अस्तित्व कैसे रहता होगा? ये दोनों स्थान किसके आधार पर रहते होंगे? इस प्रकार भारी संशय होता है।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज ने श्रीमद्भागवत ग्रन्थ मंगवाया तथा एकादश स्कन्ध एवं द्वादश स्कन्ध से चार प्रकार के प्रलयों के प्रसंग को सुनाया।

फिर कहने लगे, “श्रीमद्भागवत तथा भगवद्‌गीता में प्रतिपादित मत को देखने से तो यही प्रतीत होता है कि प्रकृति-पुरुष से जो कुछ उत्पन्न हुआ है, वह महाप्रलय में कुछ भी नहीं रहता। यदि महाप्रलय में वृन्दावन अखंड रहता हो, तो उसका प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए व्यासजी के ग्रन्थों से श्लोक तथा वेदों की श्रुति सुनाइये, क्योंकि व्यासजी से बढ़कर अन्य कोई बड़े आचार्य नहीं हैं। दूसरे जो भी आचार्य हुए हैं, उन्होंने तो व्यासजीकृत ग्रन्थों का सहारा लेकर ही अपने-अपने सम्प्रदायों का प्रचलन किया है। इसलिए, आदि आचार्य व्यासजी के वचन ही इन समस्त आचार्यों के वचनों की अपेक्षा सर्वोच्च प्रमाण हैं। यदि व्यासजी के वचनों तथा वेदों की श्रुति द्वारा यह प्रमाण सिद्ध हो जाए कि, ‘वृन्दावन महाप्रलय में नष्ट नहीं होता,’ तो हमारे संशय का निवारण हो जाएगा।

“और, जो-जो आचार्य हुए हैं, उन्होंने पद्मपुराण के वचनों से अपने अपने मतों का प्रस्थापन किया है, परन्तु वह तो पद्मपुराण में क्षेपक श्लोकों द्वारा किया है। उन्हें उनके ही मतानुयायी मान सकते हैं, अन्य कोई नहीं मानेगा। इसलिए, श्रीमद्भागवत जैसे प्रसिद्ध पुराण के वचन सुनाइये। उन्हींसे हमें प्रतीति हो जाएगी। क्योंकि व्यासजी ने वेदों, पुराणों तथा इतिहास का सार ग्रहण करके ही श्रीमद्भागवत की रचना की है। अतएव श्रीमद्भागवत का प्रमाण अन्य पुराणों की अपेक्षा सर्वोच्च है। और, जैसी भगवद्‌गीता प्रमाण है, वैसा समग्र महाभारत प्रमाण नहीं गिना जा सकता। इसलिए, ऐसे उत्कृष्ट शास्त्र का वचन ही कह सुनाइये, ताकि हमारे प्रश्न का समाधान हो।”

श्रीजीमहाराज के ऐसे वचनों को सुनकर उस ब्राह्मण ने कहा कि, “हे महाराज! आपका प्रश्न सत्य है तथा इसका उत्तर देने में इस पृथ्वी पर कोई समर्थ नहीं है। मेरे मन में तो आपके स्वरूप की ऐसी दृढ़ प्रतीति हो गयी है कि आप तो समस्त आचार्यों के अग्रणी आचार्य हैं तथा ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। इसलिए, आप कृपया मुझे अपना सिद्धान्त बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “वेदों, पुराणों, इतिहास एवं स्मृतिशास्त्रों में से हमने यही सिद्धान्त निश्चित किया है कि जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म तथा परमेश्वर ये सभी अनादि हैं। माया तो पृथ्वी के स्थान पर है और पृथ्वी में रहनेवाले बीजों के स्थान पर जीव हैं तथा ईश्वर मेघ के स्थान पर हैं। परमेश्वर की इच्छा से पुरुषरूप ईश्वर का माया से सम्बंध होता है। इसके पश्चात् जिस प्रकार मेघ के जल के सम्बंध से पृथ्वी में दबे हुए बीज अंकुरित हो जाते हैं, उसी तरह माया में अनादिकाल से बसे हुए जीवों का उदय हो जाता है। किन्तु नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। अतः जैसे ईश्वर अनादि हैं, वैसे ही माया भी अनादि है। और, उस माया में स्थित वे जीव भी अनादि हैं। किन्तु वे परमेश्वर के अंश नहीं हैं, वे तो अनादि जीव ही हैं। वे जीव जब परमेश्वर की शरण में जाते हैं, तब माया से पार हो जाते हैं। और नारद-सनकादि के समान ब्रह्मरूप होकर भगवान के धाम में जाते हैं तथा वहाँ भगवान के पार्षद बनकर रहते हैं। इस प्रकार जो हमारा सिद्धान्त है, आपको बताया।”

श्रीजीमहाराज के ऐसे वचनों को सुनकर उस ब्राह्मण ने अपने वैष्णव मत का परित्याग करके श्रीजीमहाराज का आश्रय ग्रहण किया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ २३३ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२८३. उक्त सम्प्रदाय में वृंदावन को ‘भगवद्धाम’ के रूप में विशेष माना गया है। (चैतन्य चरित्रामृत, आदि लीला: ५/१७-१९), मध्य लीला: २०/४०२, अत्यं लीला: १/६७) इसके उपरांत पद्मपुराण: ६९/६९, ७१ में कहा गया है कि वृंदावन नित्य है, प्रलयकाल में भी उस स्थान का विनाश नहीं होता।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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