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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १२

करामात!

संवत् १८८४ में आषाढ़ कृष्णा अष्टमी (१६ जुलाई, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान के बड़े कमरे के झरोखे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने अपने भक्तजनों को शिक्षा देने के उद्देश्य से यह वार्ता की कि, “जो भक्त आत्मकल्याण की इच्छा रखता है, उसे किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं करना चाहिए कि मैंने उच्च कुल में जन्म लिया है या मैं धनाढ्य अथवा रूपवान या पंडित हूँ। इस प्रकार का अभिमान मन में नहीं रखना चाहिए और गरीब सत्संगी का भी दासानुदास होकर रहना चाहिए। और, जो पुरुष भगवान के भक्त में दोष देखता हो, वह कदाचित् स्वयं को सत्संगी भक्त कहलाता हो परन्तु उसे हड़काये कुत्ते के समान समझना चाहिए! जैसे किसी को हड़काये कुत्ते ने काट लिया, तो उसे भी हड़क उठती है। उसी तरह जिसने भगवान और भगवान के भक्त का अवगुण लिया हो, उसके साथ स्नेह रखनेवाला अथवा उसकी बात सुननेवाला भी भगवान से विमुख-सा हो जाता है। और, जैसे क्षयरोग किसी भी औषधि से नहीं मिट पाता, वैसे ही जिसे भगवान तथा भगवान के भक्त में अवगुण मान लिया हो, उसके हृदय से आसुरी बुद्धि कभी भी नहीं मिट सकती। और, किसी ने अगणित ब्रह्महत्या की हों, अगणित बालहत्या की हों, अनन्त स्त्रीहत्या की हों, अगणित गोहत्या की हों तथा अनेकबार गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार किया हो, इन सभी पापों से मुक्त होने के उपाय शास्त्रों में बताए गए हैं, किन्तु भगवान तथा भगवान के भक्त के प्रति अवगुण देखनेवाले के लिए उस पाप से छुटकारा पाने का उपाय किसी भी शास्त्र में नहीं बताया गया है।

“यद्यपि विषपान करने अथवा समुद्र में गिरने या पर्वत पर से गिर जाने अथवा किसी राक्षस द्वारा खा लिये जाने से मनुष्य को केवल एक ही बार मरना पड़ता है, परन्तु भगवान तथा भगवान के भक्त का द्रोही होने पर उसे अनन्त कोटि कल्पों तक मरना और जन्म लेना पड़ता है। और, यद्यपि रोगग्रस्त होने से शरीर छूट जाए, अथवा किसी शत्रु द्वारा देह का नाश कर दिया जाए, परन्तु आत्मा का नाश नहीं होता; परन्तु भगवान और भगवान के भक्त के द्रोही का तो जीव ही नष्ट हो जाता है।

“तब कोई कहेगा कि, ‘आत्मा का नाश भला कैसे होता होगा?’ तो जैसे हिजड़े को न तो पुरुष कहा जाता है और न ही उसे स्त्री ही समझा जाता है; वह तो केवल नपुंसक कहलाता है। ठीक उसी प्रकार भगवान और भगवान के भक्त के द्रोही का जीव भी ऐसा निकम्मा हो जाता है कि वह कभी भी आत्मकल्याण का उपाय कर ही नहीं सकता; इसलिए समझना चाहिए कि उसकी आत्मा नष्ट हो गयी है। ऐसा जानकर भगवान और भगवान के भक्त का द्रोह कभी ही न करें!

“और, भले ही अपने सम्बंधीजन सत्संगी हों, परन्तु उनसे अत्यधिक स्नेह मत रखना। जैसे चीनी-मिश्रित दूध में सर्प की लार पड़ जाए और उसे यदि कोई पी ले तो उसका देहांत हो जाता है, वैसे ही सम्बंधीजन यदि हरिभक्त हुए, और उसमें देह-सम्बंधरूपी साँप का विष पड़ने से उनके प्रति स्नेह रखनेवाले का निश्चितरूप से अकल्याण ही होता है। ऐसा समझकर आत्मकल्याण के इच्छुक भक्त को अपने सम्बंधीजनों के साथ स्नेह नहीं करना चाहिए। इस प्रकार संसार से निःस्पृह रहते हुए भगवान के चरणारविन्दों में प्रीति रखते हुए भगवद्भजन करते रहना चाहिए। जो भक्त हमारी इस वार्ता को हृदयंगम कर लेता है, उसके कल्याण मार्ग में किसी भी प्रकार का विघ्न बाधक नहीं बन पाता। वास्तव में यह वार्ता तो करामात जैसी है।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज ने वार्ता की समाप्ति की।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ २३५ ॥

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