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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १३

विपरीत देशकाल में एकान्तिक धर्म की रक्षा

संवत् १८८४ में आषाढ़ कृष्णा नवमी (१७ जुलाई, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके कंठ में मोगरा-पुष्पों के हार और पाग में तुर्रे सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी तथा उनके सम्मुख मुनिगण दुक्कड़-सरोद बजाते हुए कीर्तनगान कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “कीर्तन समाप्त कीजिए, अब भगवद्वार्ता करते हैं।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने मुनियों से प्रश्न किया कि, “मनुष्य का शरीर पूर्वकर्मों के अधीन है, इसलिए उसका कोई भरोसा नहीं रहता। कभी वह शरीर स्वस्थ रहता है, तो कभी कर्मवश रोगग्रस्त हो जाता है। वह कभी स्वतन्त्र रहता है, तो कभी पराधीन हो जाता है। कभी उसका निवास अभीष्ट स्थान में होता है, तो कभी वह उससे वंचित रहता है तथा कभी उसे हरिभक्तों के मंडल में रहते हुए भी कर्म अथवा काल के कारण वहाँ से हट जाना पड़ता है और अकेला ही रहना पड़ता है। ऐसे विपरीत समय में जिस-जिस नियम को रखने की उसकी दृढ़ता हो उसका कुछ भी तालमेल ही नहीं रह पाता। अथवा अंग्रेजों के समान कोई शासक ने उसे पराधीन बना दिया हो, या अंग्रेज जैसे ही अपने मन और इन्द्रियों ने उसे परवश कर दिया हो, तब तो सन्तों के मंडल में रहने का तथा सत्संग की मर्यादा का पालन करने का कोई नियम वह नहीं रख सकता। और, शास्त्रों में तो कहा गया है कि धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के पूर्णरूप से रहने पर ही वह एकांतिक भक्त कहलाता है तथा एकांतिक की मुक्ति प्राप्त करता है; जबकि काल अथवा कर्मों के विपरीत प्रभाव से देह की व्यवस्था एक समान तो नहीं रहती। तब भगवान का भक्त अपना एकांतिक धर्म कैसे रख पाएगा? यह प्रश्न है।”

तब गोपालानंद स्वामी, चैतन्यानंद स्वामी, नित्यानंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी, ब्रह्मानंद स्वामी तथा शुकमुनि आदि बड़े बड़े साधुओं ने अपने अपने विवेक के अनुसार उत्तर दिया, किन्तु इस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस प्रकार भगवान में हमारी निष्ठा रहती है, वहीं हम कहते हैं कि हमें तो चाहे कैसा भी सुख-दुःख तथा सम्पत्ति-विपत्ति आए, फिर भी हम भगवान की अतिशय महत्ता जानते हैं, जिसके फलस्वरूप इस संसार में बड़े बड़े राजाओं की समृद्धि तथा राज्य लक्ष्मी आदि को देखकर अन्तःकरण में उसका लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। हम तो समझते हैं कि, ‘हमें तो भगवान से अधिक कोई भी नहीं है, और हमने अपना मन भगवान के चरणारविन्दों में लगा रखा है। और भगवान से ऐसी दृढ़ प्रीति कर रखी है कि उसे काल, कर्म और माया तीनों मिलकर भी मिटाने में समर्थ नहीं हो सकते। यदि हमारा मन भी इस प्रीति को मिटाने का प्रयास करे, तो भी भगवान से हमारी प्रीति नहीं हट सकती। ऐसी दृढ़ता बनी हुई है, जो कि किसी भी तरह के सुख-दुःख आने पर नहीं मिट सकती।

“और, हमारी तो स्वाभाविक ही ऐसी रुचि रहती है कि, ‘शहर हो या हवेली अथवा राजदरबार, वहाँ हमें अच्छा लगता ही नहीं है। हमें तो वन, पर्वत, नदी, वृक्ष तथा एकान्त स्थान अत्यन्त पसन्द आता है। हम ऐसा जानते हैं कि, ‘एकान्त में बैठकर भगवान का ध्यान किया जाए, वही सबसे उत्तम है!’ ऐसी रुचि सदैव रहती है। और, जब हमें रामानन्द स्वामी के दर्शन नहीं हुए थे तब हमने मुक्तानन्द स्वामी के समक्ष ऐसा ही दृढ़ निश्चय किया था कि, ‘आप मुझे रामानन्द स्वामी के दर्शन करा दीजिए, फिर हम दोनों वन में जाकर भगवान का अखंड ध्यान किया करेंगे और शहर में कभी आयेंगे ही नहीं!’ मन में ऐसा निश्चय था, जो आज भी वैसा का वैसा ही बना हुआ है। वास्तव में भगवान और उनके भक्तों से हमारा इतना दृढ़ स्नेह है कि उसे काल, कर्म और माया तीनों में से कोई भी मिटाने में समर्थ नहीं हो सकता। हमारा मन भी यदि उसे मिटाने का प्रयत्न करे तो भी हृदय से वह स्नेह मिट ही नहीं सकता; ऐसी भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ हमारी अतिशय दृढ़ प्रीति बंध गई है। और, हम कई बार सत्संग से उदास होकर चले जाने के लिए उद्यत हुए हैं, किन्तु भगवान के भक्तों के समूह को देखकर ही टिके हुए हैं, सो उन्हें किसी भी तरह छोड़कर नहीं जा पाते।

“और, जिसको मैं भगवान का भक्त नहीं समझता, वहाँ मुझे रखने के लिए यदि कोटि उपाय भी किए जाएँ, तो भी मैं वहाँ नहीं ठहर सकता। चाहे वह हमारी कितनी भी सेवा शुश्रूषा क्यों न करे, किन्तु अभक्त से हमारी पटती ही नहीं। इस प्रकार हमने अपने मन को भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ अत्यन्त प्रीतिपूर्वक जोड़ रखा है और उस भगवान के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ को प्रिय करके नहीं रखा है, अतः परमेश्वर से प्रीति क्यों न रहेगी?

“और, जब हम भगवान के कथा-कीर्तनादि करते हैं, तब ऐसी मस्ती छाई रहती है कि मानो दीवाने हो जाएँगे! फिर भी, जितना विवेक रहता है, वह कुछ भक्तजनों के हितार्थ रहा करता है, परन्तु मन में वैसी ही खुमारी बनी रहती है। इसके बावजूद बाह्यरूप से लौकिक व्यवहार करना पड़ता है।

“और, वही भगवान इस देह के संचालनकर्ता हैं। अतः वे चाहें तो इस देह को हाथी पर बैठा दें, और चाहें तो इसे बंदीगृह में रखवा दें। यदि वे चाहें तो इस देह को भीषण रोग से ग्रस्त भी कर दें। फिर भी भगवान से कभी भी ऐसी प्रार्थना नहीं करनी है कि, ‘हे महाराज! मेरे इस दुःख को मिटा दें!’ क्योंकि हमें अपने शरीर से भगवान की इच्छा के अनुसार ही आचरण करवाना है; अतः जो बात भगवान को पसन्द हो, वही हमें भी पसन्द होती है, किन्तु भगवान की रुचि से अपनी रुचि को लेशमात्र भी भिन्न नहीं रखना है। और, जब हमने अपना तन-मन-धन भगवान को अर्पित कर दिया, तब परमेश्वर की इच्छा ही हमारा प्रारब्ध हो गया! इसके अतिरिक्त कोई अन्य प्रारब्ध नहीं हो सकता। इसलिए, भगवान की इच्छा के अनुसार चाहे कैसा भी सुख-दुःख आये, परन्तु हमें व्याकुल नहीं होना है। जिसमें भगवान की प्रसन्नता है, उसमें ही हमारी प्रसन्नता! इसी प्रकार रहना है।

“और, इस प्रकार भगवान के प्रति दृढ़ प्रीति रखनेवाले भक्त के धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की रक्षा भगवान स्वयं ही करते हैं। और, कभी देशकाल आदि की विषमता के कारण यदि बाह्यरूप से धर्मादि का उल्लंघन प्रतीत होता हो तो भी उस भक्त के अन्तःकरण में धर्मादि का भंग होता ही नहीं है।”

इस प्रकार, श्रीजीमहाराज ने अपने उपदेशों द्वारा भगवान के अत्यन्त दृढ़ भक्तों को जिस प्रकार समझना चाहिए तथा परमेश्वर के प्रति जैसी प्रीति रखनी चाहिए, वह सब बातें कह सुनाईं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥ २३६ ॥

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