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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १५

भक्ति की रीति, जो मन को रास आती है।

संवत् १८८४ में आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी (२१ जुलाई, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास कक्ष के झरोखे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे और कंठ में मोगरा पुष्पों के हार पहने थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से कहा कि, “आज तो हमने अपने रसोइया हरिभक्त से बहुत बातें कीं।”

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! आपने उनसे कौन सी बातें कही?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “बात तो इस प्रकार की कि, भगवद्भक्त जब भगवान की मानसी पूजा अथवा ध्यान के लिए बैठता है, उस समय उसके मन में वही स्मृतियाँ उभर आती है कि जब उसकी आत्मा अशुभ देशकालादि के योग से पंचविषय अथवा काम, क्रोध, लोभादि द्वारा पराजित हुई हो। जैसे कोई शूरवीर सैनिक संग्राम में ज़ख्मी होने के कारण घर वापस लौटता है तथा खाट पर विश्राम भी लेता है, किन्तु उसको घावों की पीड़ा तब तक दूर नहीं होती और नींद भी तब तक नहीं आती, जब तक उसके घावों पर लगाई गईं दवाइयाँ और पट्टियाँ उसे रास नहीं आतीं। जब रोगी को दवाइयाँ रास आ जाती हैं, तब उसे आराम मिल जाता है, और घावों से होनेवाली पीड़ा मिट जाती है और नींद भी आती है। उसी तरह अशुभ देश, काल, संग और क्रिया के योग से आत्मा पर पंचविषयों के घाव लग चुके हैं, सो जब नवधा भक्ति में से जिस भक्ति के कारण भक्त को पंचविषयों के दर्द मिट जाए, तथा पंचविषयों का स्मरण तक न होने पाये, वही उसे औषध-पट्टियाँ रास आई समझ लेना चाहिए। और वही उसका भजन-स्मरण का दृढ़ अंग जानना। फिर उसी प्रकार की भक्ति को प्रधान रखते हुए मानसी पूजा और नामस्मरण तथा अन्य हर तरह की भक्ति क्रिया करते रहना। तभी उसे अतिशय पुष्टि होगी।

“और, यदि कोई भक्त अपने अंग को नहीं पहचानता, तो जैसे घायल आदमी को दवाइयाँ एवं उसकी पट्टियाँ रास नहीं आतीं और चैन नहीं होता, उसी प्रकार उसे भी भजन-स्मरण में किसी प्रकार से सुख नहीं होता, तथा जो पंचविषयों के घाव लगे हों, उन घावों की पीड़ा भी शान्त नहीं होगी। इसलिए नवधा भक्ति करते हुए जिस भक्ति के द्वारा अपना मन भगवान में लग जाए, और भगवान के सिवा अन्य कोई संकल्प तक न उठे, तब उस हरिभक्त को समझ लेना कि, ‘मेरा तो यही अंग है।’ फिर उसी प्रकार की भक्ति उसे प्रधान रखनी चाहिए, यह सिद्धांत वार्ता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १५ ॥ २३८ ॥

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