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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १६

पतिव्रता स्त्री के समान भगवन्निष्ठा

संवत् १८८४ में आषाढ़ कृष्णा अमावास्या (२३ जुलाई, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में मोगरा के पुष्पों के हार पहने थे और पाग में तुर्रे अत्यंत सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त मुनिमंडल तथा सभी गृहस्थ हरिभक्तों से हम प्रश्न पूछते हैं, जो भक्त उत्तर दे सकते हों, वे इसका उत्तर दें। प्रश्न यह है कि भगवान के भक्त को अवगुणवाले का परित्याग करने में कुछ भी देर नहीं लगती, परन्तु जो बहुत गुणवान हों, उसका परित्याग किस प्रकार किया जाए? क्योंकि जो गुणवान हैं, वे चाहे अपने नाती-सम्बंधी हो या अन्य कोई, परन्तु गुणवानों से तो सभी की सहज ही प्रीति हो जाती है; जो मिटाने पर भी नहीं मिट सकती। इसलिए भगवद्भक्त को बिना भगवान के कहीं अन्यत्र किसी गुणवान के साथ प्रीति ही न हो, ऐसा कौन-सा उपाय है?”

तब बड़े बड़े सन्तों ने अपने अपने विवेक के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

फिर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इसका उत्तर हम देते हैं कि, कोई भी पतिव्रता स्त्री अपने कंगाल, कुरूप, रोगी या वृद्ध पति के होने पर भी अन्य धनी, रूपवान और युवा पुरुष को देखकर उसके प्रति तनिक भी आकृष्ट नहीं होती। यदि कोई पतिव्रता स्त्री परपुरुष के सामने स्नेहपूर्वक देखती है, अथवा उससे हँसकर बोलती है, तब उसका पातिव्रत धर्म नष्ट हो जाता है। यदि उस पतिव्रता के घर पर कोई अतिथि और पति का कोई सम्बंधी आया हो, तो उसे अपने पति के सम्बंधीजन समझकर ही अन्न-जल प्रदान करती है, किन्तु अपने पति के साथ उसकी जैसी प्रीति होती है, वैसी उससे कभी नहीं होती। और अपने पति का जैसा गुण ग्रहण करती है, वैसा अन्य किसी का ग्रहण नहीं करती। वह तो अपने पति की मर्जी के अनुसार ही आचरण करती है। इस प्रकार, पतिव्रता स्त्री को अपने पति के प्रति ही दृढ़ निष्ठा बनी रहती है।

“वैसे ही भगवद्भक्त को भी भगवान में दृढ़ निष्ठा रखनी चाहिए। और जिस रूप में स्वयं को भगवान के दर्शन हुए हों, उनके साथ जिसे पतिव्रता-सी दृढ़ प्रीति हो गई हो, उसे तो भगवान के अतिरिक्त अन्य बड़े बड़े मुक्त साधुओं के प्रति भी प्रीति होती ही नहीं। और, अपने इष्टदेव के अन्य अवतारों के प्रति भी उसकी प्रीति नहीं होती। उसे केवल भगवान के उस स्वरूप में ही प्रीति बनी रहती है, जिसकी उसे प्राप्ति हुई है। और ऐसा भक्त भगवान की मर्जी अनुसार ही रहता है। तथा वह किसी अन्यों को जो कुछ माने, वह तो केवल इसी दृष्टि से मानता है कि वे भी भगवान के हैं। इस प्रकार जिसको अपने इष्टदेव अर्थात् भगवान में पतिव्रता-सी दृढ़ भक्ति रहती है, वह अन्य कैसे भी गुणवान को देखे, परन्तु उसके साथ उसे स्नेह होता ही नहीं। जैसे हनुमानजी रघुनाथजी के भक्त रहे हैं। यद्यपि रामावतार के बाद भगवान के अन्य कितने ही अवतार हुए हैं, फिर भी हनुमानजी पतिव्रता के समान रामचन्द्रजी की ही भक्ति करते रहे हैं। भगवान जिस भक्त की ऐसी ही एकनिष्ठा है, उसे पतिव्रता सदृश भक्ति कहा जाता है। जिसकी ऐसी एकनिष्ठा न हो, उसकी तो व्यभिचारिणी स्त्री के समान भक्ति कही जाएगी।

“अतः जिससे जानबूझ कर अपने पर कलंक मढ़ जाए ऐसी भक्ति कभी मत करना! भगवान के भक्त को सोच-समझकर पतिव्रता स्त्री के समान ही दृढ़ भक्ति करनी चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १६ ॥ २३९ ॥

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