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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २४

ज्ञान की स्थिति; माहात्म्य की खटाई

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला षष्ठी (२२ दिसम्बर, १८१९) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उनके सिर पर सफ़ेद फेंटा बंधा हुआ था और उन्होंने श्वेत धोती पहनी थी, गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी हुई थी और सफ़ेद शाल ओढ़ी थी। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज परमहंसों से बोले, “ज्ञान द्वारा जो स्थिति होती है, उसे बताते हैं।३६ वह ज्ञान कैसा है? तो वह प्रकृति-पुरुष से परे है। और जब उस ज्ञान में स्थिति होती है, तब प्रकृति-पुरुष और उनका कार्य कुछ भी दिखाई नहीं देता। और उसे ज्ञानप्रलय कहते हैं। और जिसकी ऐसी स्थिति होती है, उसे एकरस चैतन्य का अनुभव होता है, फिर उस चैतन्य में केवल भगवान की मूर्ति ही रहती है, अन्य दूसरा आकार नहीं रहता। और कभी तो उस प्रकाश में भगवान की मूर्ति भी नहीं दिखाई देती, अकेला प्रकाश ही दिखाई पड़ता है। और कभी तो प्रकाश भी दिखता है, तथा भगवान की मूर्ति भी दिखायी पड़ती है। इसी स्थिति को ज्ञान द्वारा प्राप्त स्थिति कहते हैं। तथा भगवान की मूर्ति जैसी प्रत्यक्ष रूप में दिखती है, उसी मूर्ति में अखंडितरूप से वृत्ति रहने पर ऐसी स्थिति होती है। जिसे भगवान की जितनी महिमा समझ में आयी हो, उसके हृदय में उतना ही प्रकाश होता है और उसे उतना ही प्रणव-नाद सुनायी देता है। इसी प्रकार जिसे भगवान सम्बंधी जितना निश्चय होता है और उनकी जितनी महिमा समझ में आती है, उसके उतने ही बुरे संकल्प समाप्त हो जाते हैं।

“जब भगवान का यथार्थरूप में निश्चय हो जाता है तथा यथार्थ रूप में उनकी महिमा समझ में आ जाती है, तब उसके बुरे संकल्प बिल्कुल मिट जाते हैं। जिस प्रकार नींबू की एक फांक चूसने से दाँत थोड़े खट्टे पड़ जाते हैं, परन्तु चने धीरे धीरे चबाये जा सकते हैं, किन्तु मूंग का दाना बड़ी कठिनाई से चबाया जा सकता है। और अगर बहुत नींबू चूस डाले, तब तो ढीला भात तक नहीं खाया जा सकता। उसी तरह जिसे भगवान सम्बंधी निश्चय तथा माहात्म्यरूपी खटाई लग चुकी हो, तो उसका चार अन्तःकरण एवं दस इन्द्रियरूपी डाढ़ें खट्टी हो जाती हैं। तब वह जीव मनरूपी अपनी डाढ़ द्वारा विषयों के संकल्परूपी चने चबाने में समर्थ नहीं होता! और वह चित्तरूपी अपनी डाढ़ से विषय का चिन्तन करने में असमर्थ हो जाता है, तथा बुद्धिरूपी अपनी डाढ़ से विषयभोग आदि विपरीत निश्चय करने में समर्थ नहीं होता, एवं अहंकाररूपी अपनी डाढ़ द्वारा विषय सम्बंधी अभिमान करने में असमर्थ होता है।

“इसके उपरांत पंच-ज्ञानेन्द्रिय एवं पंच-कर्मेन्द्रियरूपी जो डाढ़ें हैं, उनके द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयरूपी चने चबाने में भी समर्थ नहीं होता तथा जिन्हें भगवान का यथार्थरूप में निश्चय न हुआ हो तथा भगवान को महिमा यथार्थरूप में समझ में न आई हो, उनकी इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण अपने-अपने विषयों से निवृत्त नहीं हो पाते।

“भगवान का स्वरूप माया और माया के गुणों से परे है, समस्त विकारों से रहित है, तो भी वे जीव के कल्याण के लिए मनुष्य के समान दिखते हैं। ऐसे भगवान में जो मन्द मतिवाले लोग होते हैं, वे जिन-जिन दोषों की कल्पना करते हैं, उनमें से कोई भी दोष भगवान में नहीं हैं, किन्तु इस प्रकार की कल्पना करनेवालों की बुद्धि में से ये दोष कभी भी मिटनेवाले नहीं है। उसमें भी भगवान को जो कामी समझता है, वह अत्यन्त कामी हो जाता है, भगवान को जो क्रोधी समझता है, वह अत्यन्त क्रोधी हो जाता है, भगवान को जो लोभी समझता है, वह अत्यन्त लोभी हो जाता है, भगवान को जो ईर्ष्यालु समझता है, वह अत्यन्त ईर्ष्यालु हो जाता है। जो व्यक्ति भगवान पर इस प्रकार का दोषारोपण करते हैं, वे तो ‘सूर्य के ऊपर फेंकी हुई धूल लौटकर अपनी आँखों में ही पड़ती है’ उस प्रकार स्वयं को ही दुःखी बना लेते हैं और जिन दोषों की कल्पना उसने भगवान की थी वही दोष उसे ही पीड़ा देने लगते हैं! अपने आपमें चाहे कैसे भी बुरे स्वभाव हों, पर यदि वह भगवान को अतिशय निर्दोष समझें तो स्वयं भी अत्यन्त निर्दोष (दोषरहित) हो जाता है।”

फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “यदि किसी भी विषय में अपनी इन्द्रियाँ आकर्षित न होती हों तथा अन्तःकरण में भी अशुभ संकल्प न रहते हों तथा भगवान का निश्चय भी यथार्थरूप से रहता हो, फिर भी यदि भीतर अपूर्णता रहती है और अन्तःकरण सूना रहता है, तो इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “यह भी उस हरिभक्त में एक बड़ी कमी है, कि उसका मन यद्यपि स्थिर हो चुका है तथा भगवान के प्रति निश्चय भी दृढ़ है, फिर भी हृदय में ऐसा अतिशय आनन्द नहीं आता कि, ‘मैं धन्य हूँ और कृतार्थ हुआ हूँ। तथा संसार के जीव (लोग) तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा तथा तृष्णा से परेशान होते फिरते हैं और त्रिविध तापों से रात-दिन जलते रहते हैं, किन्तु मुझे तो प्रकट पुरुषोत्तम ने करुणा करके अपने स्वरूप की पहचान करवाई है, तथा काम-क्रोधादि समस्त विकारों से मुक्त कर दिया है तथा मुझे नारद-सनकादिक जैसे सन्तों के सत्संग में रखा है, इसलिए मेरा धन्य भाग्य है।’ इस प्रकार का विचार नहीं करता और आठों पहर अतिशय आनन्दमग्न नहीं रहता, यह उसकी बड़ी कमी है।

“जिस प्रकार से बालक के हाथ में चिन्तामणि दे दिया हो, किन्तु उसे उसका महत्त्व प्रतीत नहीं होता और उसे उसका आनन्द नहीं मिल पाता। उसी प्रकार वह हरिभक्त यह नहीं समझ पाता कि मुझे भगवान पुरुषोत्तम मिले हैं और मेरे अन्तःकरण में मुझे आठों प्रहर कृतार्थता नहीं रहती कि, ‘मैं पूर्णकाम हुआ हूँ।’ ऐसा नहीं समझता, वह हरिभक्त में सबसे बड़ी कमी है। और जब कभी किसी हरिभक्त का दोष दिखाई दे, तब यही समझना कि, ‘यद्यपि इसका स्वभाव सत्संग में शोभास्पद नहीं है, तथापि उसे सत्संग प्राप्त हुआ है, तो वह चाहे साधारण ही क्यों न हो, परन्तु वह सत्संग में पड़ा रहा है, तो उसके पूर्वजन्म का अथवा इस जन्म का संस्कार बहुत बड़ा है, अतः उसे ऐसा सत्संग मिला है।’ ऐसा समझकर उसका भी अतिशय गुण ग्रहण करना चाहिए।” इतनी वार्ता करके श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३६. आत्मा-परमात्मा के साक्षात् यथार्थ अनुभव-रूप ज्ञान तथा भगवान के स्वरूप में मन की स्थिरतारूप स्थिति।

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