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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १८

वासना की जीर्णता

संवत् १८८४ में श्रावण कृष्णा दशमी (१७ अगस्त, १८२७) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। पाग में फूलों के तुर्रे लटक रहे थे। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज के भतीजे रघुवीरजी ने प्रश्न किया कि, “जाग्रत अवस्था में जीव की जैसी स्थिति रहती है, वैसी दशा स्वप्नावस्था में क्यों नहीं रहती?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जाग्रत अवस्था में जीव जैसा होता है, वैसी ही उसकी स्थिति स्वप्नावस्था में भी रहती है, क्योंकि जीव की वासना जाग्रत अवस्था में जिस प्रकार की रहती है, उसी की स्फुरणा स्वप्नावस्था में भी होती है।”

तब निर्लोभानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! स्वप्नावस्था में तो ऐसे-ऐसे तत्त्व स्फुरित होते हैं जो जाग्रत अवस्था में न तो कभी दिखाई दिए थे, न तो उनके सम्बंध में कुछ सुनाई दिया था! ऐसे तत्त्व स्वप्न में दिखाई पड़ने का क्या कारण होगा?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो अनदीखे-अनसुने तत्त्व स्फुरित होते हैं, उनका सम्बंध पूर्वजन्म में किए गए कर्मों की वासना के साथ है।”

तब अखंडानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! मनुष्य यदि भगवद्भक्त हो गया, तो भी भक्त को पूर्वजन्म के कर्मों की प्रबलता कब तक बनी रहती है?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस जीव को जब सत्पुरुष की संगत होती है, तब वह जैसे-जैसे उनका सत्संग करता जाता है, वैसे-वैसे पूर्वकर्म-सम्बंधित वासना क्षीण होती जाती है। इसके पश्चात् उसमें वह वासना ही नहीं रहती, जो जीव को जन्म-मरण के बन्धन में डाले रहती है। जिस प्रकार तीन-चार वर्ष पुराना धान खाया तो जा सकता है, किन्तु उसे यदि बोया जाए तो वह उग नहीं सकता, वैसे ही पूर्वकर्म सम्बंधी वासना जब जीर्ण हो जाती है, तब उसमें जीव को जन्म-मरण के बन्धन में डालने की क्षमता ही नहीं रहने पाती।

“तब कोई यह पूछे कि, ‘जीव की वासना जीर्ण हो गई यह कैसे ज्ञात हो सकता है?’ तो यह दृष्टांत सुनिए। जब तक योद्धाओं के दो दल ढाल-तलवारें लेकर आमने-सामने लड़ते हैं, उस समय यदि कोई किसी से पराजित नहीं होता, तब तक स्पष्ट है कि दोनों दलों का बल बराबर समान दर्जे का है। किन्तु उनमें से किसी एक दल के एक योद्धा का भी पैर पीछे हटता दिखाई दिया, तब उस दल को पराजित ही समझा जाएगा। वैसे ही भगवद्भक्त के हृदय में जब तक भगवान सम्बंधी संकल्प तथा विषय सम्बंधी संकल्प समानरूप से बने रहे, तब तक यही समझना कि वासना बलवती है। परन्तु जब भगवान सम्बंधी संकल्प विषयमूलक संकल्पों को हटा दें, तब ऐसा समझ लेना कि वासना जीर्ण हो गई है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से प्रश्न किया कि, “यह बात अन्य भक्तों को किस प्रकार प्रतीत हो सकती है कि भगवान का यह भक्त देहाभिमान से मुक्त है, और उसे पंचविषयों के प्रति भी अरुचि हो गई है?”

तब मुक्तानंद स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! आपके इस प्रश्न का उत्तर हम नहीं दे सकते। इसलिए कृपया आप ही उत्तर दीजिए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि भगवान के गृहस्थाश्रमी अथवा त्यागी भक्त हो और यदि उसका देहाभिमान नष्ट हो गया हो और वह पंचविषयों से भी अनासक्त हो, तो भी उसे परमेश्वर की आज्ञा से यथोचित देहाभिमान भी रखना चाहिए और यथेष्टरूप से पंचविषयों का उपभोग भी करना चाहिए। जैसे किसी अत्यन्त दुर्बल पशु को लकड़ियों का टेका लगाकर सींग-पूँछ पकड़कर खड़ा कर दिया जाए, तो वह सहारा होने तक खड़ा रह सकता है, किन्तु ज्यों ही उस जानवर को छोड़ दिया जाएगा, वह जानवर भूमि पर गिर पड़ेगा। वैसे ही निर्वासनिक भक्त को तो परमेश्वर अपनी आज्ञा के अनुसार जितनी क्रिया में प्रवृत्त होने दें, उतनी ही क्रिया करता है, फिर उस क्रिया से मुक्त हो जाता है।

“जैसे किसी पुरुष के हाथों में तीर-कमान हो और वह जब तक उसे खींचता रहेगा तब तक यह धनुष तना रहेगा। परन्तु अगर उसने धनुष खींचने में शिथिलता दिखाई तो वह ढीला पड़ जाएगा। वैसे ही निर्वासनिक पुरुष परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार ही व्यावहारिक कार्य करता रहता है। बिना आज्ञा के वह कोई भी कार्य नहीं करता, जबकि सवासनिक भक्त तो जिस जिस व्यावहारिक क्रिया में जुड़ जाता है, वहाँ से वह स्वयं मुक्त नहीं हो सकता तथा परमेश्वर की आज्ञा से भी छूट नहीं सकता। यही निर्वासनिक तथा सवासनिक भक्तों के लक्षण हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥ २४१ ॥

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