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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १९

त्यागियों के दो कुलक्षण

संवत् १८८४ में श्रावण कृष्णा त्रयोदशी (२० अगस्त, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उनके कंठ में मोगरा और कर्णिकार पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष मुनिवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिन्होंने संसार का त्याग किया है, उनके दो कुलक्षण हैं जो इस सत्संग में शोभा नहीं देते। इनमें से एक तो कामना है तथा अन्य कुलक्षण अपने कुटुम्बियों के प्रति स्नेह है। जिनमें ये दो कुलक्षण हों, वे हमें पशु के समान प्रतीत होते हैं।

“उनमें भी जिनको अपने सम्बंधियों के प्रति विशेष स्नेह रहता है, उनके प्रति तो हमारे मन में अत्यंत दुर्भाव रहता है। अतः संसार त्याग करनेवाले पुरुष को अपने सम्बंधियों के साथ लेशमात्र भी स्नेह नहीं करना है। क्योंकि पंच महापापों से भी बढ़कर सम्बंधियों से स्नेह रखना घोर पाप है। अतः भगवान के त्यागी भक्त देह तथा देह के सम्बंधी से अपनी आत्मा भिन्न समझें कि मैं तो आत्मा हूँ और किसी के साथ मेरा लेशमात्र भी सम्बंध नहीं है। और, देह के सम्बंधियों को चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीवों के समान समझना चाहिए। यदि इन सम्बंधियों को सत्संगी समझकर उनकी महिमा समझने लगे, तो एक तो सम्बंध का स्नेह रहता है, तथा दूसरा उनके हरिभक्तपन का भी माहात्म्य समझने लगता है, तब भगवान तथा भगवद्भक्त की अपेक्षा सम्बंधी के साथ ही अधिक स्नेह हो जाया करता है। अतः जिनमें स्वाभाविक स्नेहासक्ति रही है, ऐसे अपने सम्बंधियों को यदि हरिभक्त समझकर उनके साथ स्नेह किया जाता है, तो उसका जन्म भ्रष्ट हो जाता है।

“और, भले ही देह का सम्बंधी न हो, परन्तु जो अपनी सेवा-चाकरी करता हो, उससे भी स्वाभाविक स्नेह हो जाता है। इसलिए, विवेकशील भक्त को उसके साथ भी, जो अपनी सेवा करता हो तथा हरिभक्त भी हो, स्नेह नहीं करना चाहिए। जैसे चीनी-मिश्रित दूध में अगर साँप ने मुँह डाल दिया हो, तो उसे भी ज़हर कहा जाएगा, वैसे ही जिसमें सेवा-चाकरी के रूप में स्वार्थ रहा हो, वह यदि हरिभक्त ही क्यों न हो, अपने स्वार्थ के कारण उसके साथ स्नेह नहीं करना चाहिए। क्योंकि उससे अपनी आत्मा को बन्धन प्राप्त हो जाता है तथा भगवान के चिंतन के साथ-साथ जिसमें अपना स्वार्थ हो उसका भी चिंतन होने लगता है। वही उसे परमेश्वर के भजन में उपस्थित सबसे बड़ा विघ्न है। जिस प्रकार भरतजी को मृगी का बच्चा ही अविद्या-मायारूप सिद्ध हुआ, उसी तरह भगवान के भजन में जो-जो वस्तुएँ बहुत बाधक बनती हों, उन चीज़ों का भगवद्भक्त को अविद्यारूप समझकर सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकरण की वार्ता को सन्त मंडल तथा सांख्ययोगी हरिभक्तों को प्रतिदिन कहना और सुनना चाहिए। इसकी रीति इस प्रकार रखें कि, जिसके मंडल में जो अग्रणी हो वह प्रतिदिन यह वार्ता करता रहे और अन्य साधु भी इसे सुनते रहें। जो अग्रणी साधु जिस दिन यह वार्ता न कर सके, उस दिन उसे उपवास करना। तथा श्रोता यदि श्रद्धापूर्वक भगवान की इस कथा को सुनने के लिए न आ सके तो उसे भी उपवास करना। इन वचनों का अत्यंत दृढ़तापूर्वक पालन करें।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १९ ॥ २४२ ॥

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