Show Shravan Audio
॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य २०
स्वभाव, प्रकृति या वासना की परिभाषा
संवत् १८८४ में श्रावण कृष्णा अमावस्या (२२ अगस्त, १८२७) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष साधुवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
तब दीनानाथ भट्ट ने पूछा कि, “हे महाराज! काल तो भगवान की शक्ति है तथा कर्म जीव द्वारा जो किए जाते हैं वह हैं, परन्तु स्वभाव वस्तुतः क्या है?”२८५
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जीव ने पूर्वजन्म में जो कर्म किए हैं, वे परिपक्व अवस्था को प्राप्त होकर जीव के साथ घुलमिल गये हैं। जैसे लोहे में अग्नि का प्रवेश हो जाता है, वैसे ही परिपक्व बने हुए, जीव के साथ घुलमिल गए जो कर्म हैं, उन्हीं को स्वभाव कहते हैं, तथा उन्हीं को वासना तथा प्रकृति कहते हैं।”
फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! आप बताते हैं कि जीव के साथ एकरस हो चुके कर्मों को ही स्वभाव तथा वासना कहा जाता है। अब कृपया यह बताइए कि ऐसी वासना को मिटाने का कौन-सा उपाय है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “ऐसी वासना को मिटाने का उपाय यही प्रतीत होता है कि आत्मनिष्ठापूर्वक श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति की जाए। यदि बिना आत्मनिष्ठा के ही भगवान की एकमात्र भक्ति की जाएगी, तो भगवत्प्रेम के साथ-साथ अन्य पदार्थों से भी लगाव हो जाएगा। अतः आत्मनिष्ठापूर्वक भक्ति करनी, यही वासना को टालने का एकमात्र उपाय है। यदि आत्मनिष्ठावाले पुरुष को भी कभी किसी अशुभ देशकालादि के योग से अज्ञानी के समान ही क्षोभ हो जाए, तो भी वह अधिक समय तक टिक नहीं सकता।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २० ॥ २४३ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२८५. काल, कर्म तथा स्वभाव तीनों जीव के सुख-दुःख में निमित्तरूप हैं, उनमें।