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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २१

धर्म में भक्ति के समान गौरव

संवत् १८८४ में भाद्रपद शुक्ला नवमी (३१ अगस्त, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। कंठ में चमेली-पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष समस्त मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने गोपालानन्द स्वामी तथा शुकमुनि को प्रश्नोत्तरी प्रारंभ करने की आज्ञा दी। तब शुकमुनि ने गोपालानन्द स्वामी से पूछा कि, “भगवान की भक्ति द्वारा जीव भगवान की माया को तैरकर अक्षरधाम को प्राप्त होता है। और धर्मनिष्ठा रखने से देवलोक की प्राप्ति होती है, किन्तु पुण्यों का क्षय होने पर जीव का देवलोक से पतन होता है। भगवान के अवतार तो जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब धर्म की स्थापना के लिए ही होते हैं, वे भक्ति की स्थापना के लिए प्रकट नहीं होते! तथापि भक्त को जो प्राप्ति होती है, वह भक्ति द्वारा ही होती है, परन्तु धर्म के द्वारा तो नहीं होती। अतएव, प्रश्न यह है कि भक्ति के सदृश महत्ता धर्म में किस प्रकार आ सकती है?”

इस प्रश्न का उत्तर गोपालानन्द स्वामी देने लगे, परन्तु उन्होंने जो-जो बातें कहीं उसमें धर्म भक्ति का अंगरूप हो जाता था! इस प्रकार की रीति से धर्म में भक्ति के समान गौरव प्रस्थापित नहीं हो पाता था।

इसे सुनकर श्रीजीमहाराज बहुत हँसे और बोले कि, “इस प्रश्न का उत्तर तो बहुत कठिन है; इसलिए लीजिए, इसका उत्तर हम देते हैं। धर्म के दो प्रकार हैं। इनमें से एक निवृत्तिधर्म है तथा दूसरा प्रवृत्तिधर्म है। दोनों प्रकार के ये धर्म भगवान के सम्बंध से युक्त भी हैं, तथा उनके सम्बंध से रहित भी हैं। इनमें से जो भगवान के सम्बंध से संयुक्त धर्म है, वह नारद-सनकादि, शुकजी, ध्रुव, प्रह्‌लाद तथा अंबरीष आदि भक्तों का धर्म है। इसी धर्म को भागवत धर्म तथा एकांतिक धर्म कहते हैं। वास्तव में ऐसा जो धर्म तथा भक्ति वे दो नहीं, बल्कि एक ही है तथा जिस धर्म की स्थापना के लिए भगवान के अवतार होते हैं, वह यही धर्म है, जिसे स्थापित करने के लिए भगवान इस भूमि पर अवतार धारण करते हैं।

“और जो केवल वर्णाश्रम सम्बंधी धर्म है, वह तो भागवत धर्म की अपेक्षा अत्यन्त गौण है। भागवत धर्म द्वारा तो जीव भगवान की माया को तैरकर पुरुषोत्तम के धाम को प्राप्त होता है। इसलिए, भागवत धर्म तथा भक्ति का गौरव एकसमान ही है और प्राप्ति में भी समानता है। इस प्रकार भक्ति एवं धर्म की समान महत्ता है, किन्तु वर्णाश्रम सम्बंधी धर्म उस भागवत धर्म के आगे अत्यंत गौण हैं और उनका फल भी नाशवान होता है।

“और हमारा मत भी यही है कि, हमसे बिना भगवान तथा बिना उनके एकान्तिक भक्त यदि किसी और से स्नेह किया जाए तो भी वह नहीं होता। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि, जड़भरत, शुकदेव, दत्तात्रेय तथा ऋषभदेवजी आदि के समान हमारी भी रुचि रहा करती है। अतः हमें भी वन-पर्वतों पर निवास करना ही अच्छा लगता है, परन्तु बड़े बड़े नगरों-शहरों में रहना रुचिकर नहीं लगता, ऐसा हमारा सहज स्वभाव है। तथापि, हम भगवान और भगवान के भक्त के लिए लाखों लोगों के भीड़े में रहते हैं, शहरों में रहते हुए भी हम वैसे ही अनासक्त एवं निर्बन्ध रह सकते हैं, जैसे हम वन में रहकर निर्बन्ध रहते हो। हम किसी स्वार्थ के कारण इन लाखों लोगों के भीड़े में नहीं रहते! हम तो केवल भगवान के भक्त के लिए भीड़े में रहते हैं। और भगवान के भक्त के लिए चाहे कितनी ही प्रवृत्ति करनी पड़े, फिर भी हम उसे निवृत्ति ही मानते हैं।

“और, भगवान का कोई भक्त हो तथा चाहे वह कितना ही दोषी हो, फिर भी हमारे मन में उसके प्रति कोई उपेक्षा नहीं रहती। हम जानते हैं कि भगवान के भक्त के कुछ स्वाभाविक अल्प दोष हों, तो उन पर ध्यान देना ही नहीं! ऐसे दोष यदि अपने में हों, तो उन्हें मिटाने का उपाय अवश्य करें। किन्तु, भगवान के भक्त में यदि उस प्रकार के दोष हैं, तो भी उनके अवगुण ग्रहण न करें। कदाचित् पंचव्रतों में मुख्य जो निष्काम व्रत है, उसमें यदि किसी से कोई त्रुटि हो गई तो उसे दोष समझना वरन् अल्पदोष होने पर भगवद् भक्तों के प्रति अवगुण दृष्टि से नहीं देखना चाहिए।

“और, भगवान के भक्त के साथ वाद-विवाद करके उसे जीतकर प्रसन्न नहीं होना चाहिए, उससे तो हारकर ही प्रसन्न होना चाहिए; और जो भक्त वाद-विवाद द्वारा भगवान के भक्त को जीतता है, वह तो पंच महापापों के करनेवाले से भी अधिक पापी है। और हमारे सामने यदि कोई भगवान के भक्त की निंदा का वचन कहे, तो हमें उसे देखना तक अच्छा नहीं लगता। तथा कोई व्यक्ति भगवद्भक्तों का अवगुण ग्रहण करता हो, तो हमें उसके हाथ से प्राप्त अन्न-जल भी अच्छा नहीं लगता। और ऐसा ही मनुष्य यदि हमारा सम्बंधी हो, परन्तु उससे भी हमारा मन अत्यंत खिन्न हो जाता है। क्योंकि वैसे भी आत्मा ही हमारा स्वरूप है, तब देह और उसके सम्बंधियों से स्नेह क्यों रखना चाहिए? हमने तो आत्मसत्तारूप रहकर भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ स्नेह किया है, परन्तु देहबुद्धि से स्नेह नहीं किया है। और जो भक्त आत्मसत्तारूप नहीं रह सकेगा, उसे तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरादि शत्रु संकट में डाले बिना नहीं रहेंगे। इसलिए जो आत्मसत्तारूप रहकर भक्ति नहीं करते होंगे, उसके कर्मों का इस सत्संग में पर्दाकाश हुए बिना रहेगा ही नहीं। क्योंकि यह सत्संग तो अलौकिक है। श्वेतद्वीप, वैकुंठ तथा गोलोक में भगवान के पार्षद हैं, वैसे ही ये सब सत्संगी हैं। हम तो सबसे परे जो दिव्य अक्षरधाम है, उसमें जो भगवान के पार्षद हैं, उन्हीं के समान इन सत्संगियों को न मानते हों, तो हमें भगवान तथा भगवान के भक्त की सौगन्ध है।

“जिसे ज्ञान, वैराग्य, धर्म तथा भक्ति चारों अत्यन्त सुदृढ़ नहीं होते, तो अन्ततोगत्वा वह शिथिल हुए बिना नहीं रहेगा। जैसे मोम-मिश्रित डोरा शीत ऋतु में तथा वर्षाऋतु में कड़ा बना रहता है, किन्तु ग्रीष्म के समय वह अवश्य ढीला पड़ जाता है। उसी तरह सत्संग में हरिभक्त को हर प्रकार के सुख उपलब्ध हों, तथा सत्संग में सर्वत्र सम्मान मिलता रहे, वह वर्षाकाल तथा शीतकाल की तरह है, जिसमें भक्त के जीवन में ज्ञान, वैराग्य, धर्म एवं भक्ति सभी बहुत अच्छे दिखाई पड़ते हैं; किन्तु जब सत्संग में अपमान हो, तथा देह से भी दुःख प्राप्त हो, वह सत्संगी के लिए ग्रीष्मकाल है। ऐसे समय तो उस भक्त के जीवन में ज्ञान, वैराग्य, धर्म और भक्ति सभी मोम-मिश्रित डोरे की तरह ढीले पड़ जाते हैं। हालाँकि इतना होने पर भी हम उसका त्याग नहीं करते, किन्तु वही स्वयं मन ही मन पराधीन होकर सत्संग से पतनोन्मुख हो जाता है; फिर वह सत्संगी कहलाता हो, तो भी उसके अंतर में सत्संग सम्बंधी सुख नहीं रहता।

“इसलिए, सत्संग करें तो आत्मसत्तारूप होकर ही अत्यंत दृढ़ता के साथ ही करें। किन्तु, ऐसा सत्संग न करें कि देह और देह के सम्बंधियों के साथ कुछ स्नेह रह जाए। जैसे सोने का तार छहों ऋतुओं में एक समान रहता है, जो ग्रीष्म काल की धूप से ढ़ीला नहीं होता। वैसे ही दृढ़ सत्संगी को चाहे कैसे ही दुःख आ पड़ें और सत्संग में उसका चाहे कितना ही अपमान हो, फिर भी किसी भी ढंग से उसका मन सत्संग से विचलित नहीं होता। ऐसे दृढ़ सत्संगी वैष्णव ही हमारे तो सगे-सम्बंधी हैं, और वही हमारी ज्ञाति है। तथा हमें इस देह से ऐसे वैष्णवों के संग में ही रहना है; तथा श्रीकृष्ण भगवान के धाम में भी ऐसे वैष्णवों के साथ ही निवास करना है, ऐसा हमारा निश्चय है। आप सभी को भी यही निश्चय करना चाहिए। क्योंकि आप सभी हमारे आश्रित हुए हैं, अतः हमें भी आपके हित की बात कहनी चाहिए। वास्तव में मित्र भी वही है जो, ‘दुःख पहुँचाकर भी उसके हित की बात कहे।’ मित्र का यही लक्षण है, उसे समझ लेना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २१ ॥ २४४ ॥

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